योग के बारे में (yoga)

क्लेश, कर्म और ध्यान

महृषि पतंजलि अब तक कहते हैं कि अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, दुःख के इन पांच स्त्रोतों को साधना के माध्यम से क्षीण करते जाओ।  

सूत्र 10: ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः॥१०॥

जब तुम इन क्लेशों को क्षीण करते करते सूक्ष्मतम बनाते जाते हो उसके उपरान्त ये तुम्हें अपने केंद्र में वापिस स्थित हो जाने देते हैं। ये मन को पुनः स्वयं में ले आते हैं।

जब ये क्लेश बहुत प्रगाढ होते हैं, तब तुम दुखी हो जाते हो, यह क्लेश मन को बाँध लेते हैं।पर जैसे जैसे यह क्लेश क्षीण होते हैं वैसे वैसे मन मुक्त होते होते अपने स्वयं के केंद्र में स्थित होने लगता है।

देखो जब तुम किसी व्यक्ति या वस्तु के लिए बहुत तरस रहे होते हो तब मन शांत नहीं हो सकता है। जैसे जब तुम किशोरावस्था में प्रेमी या प्रेमिका की लालसा कर रहे होते हो तब मन शांत नहीं हो सकता है। जब तक यह लालसा बहुत अधिक हो तब तुम ध्यान में नहीं बैठ पाते हो। परन्तु जैसे ही यह लालसाएं समाप्त होने लगती हैं, तब तुम बैठकर अंतर्मुखी हो सकते हो। जैसे ही यह ज्वरता की पकड़ ढीली होती है, क्लेश भी कम होने लगते हैं और मन स्वयं में पुनः स्थापित हो सकता है।

अब इन दुखों से मुक्ति का उपाय क्या है?

सूत्र 11: ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः॥११॥

इन पांच वृत्तियों को ध्यान के द्वारा समाप्त किया जा सकता है। ध्यान से इस दुःख के पार जाया जा सकता है। पतंजलि कहते हैं कि तुम्हें इन दुखों से मुक्त होना ही चाहिए और ध्यान ही इसका एकमात्र रास्ता है।

परन्तु तुम यह न करो तब क्या होगा?

सूत्र 12: क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः॥१२॥

यदि तुम अपनी चेतना को इन पांच क्लेशों से मुक्त नहीं करते हो तब तुम इस जन्म में भी दुखी रहते हो और आगे भी यह दुःख बना रहता है।  पतंजलि कहते हैं, दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः, कोई और रास्ता है ही नहीं, तुम्हें इस जीवन में तो दुःख झेलना ही पड़ता है, इतना ही नहीं, आगे के जन्मों में भी दुःख बना रहता है। क्योंकि यह क्लेश कर्माशय, कर्मों का एक कोष-बैंक जैसा बना देते हैं। कर्माशय, कर्म के एक टैंक जैसा  तुम्हारे साथ रहता है। ध्यान के द्वारा ही तुम अभी, इसी समय कर्म को मिटा सकते हैं।

इससे पहले कि तुम्हारा शरीर तुम्हें छोड़ दे, तुम अपने कर्म बंधनों से मुक्त हो जाओ और अपने ऊपर की इस अज्ञान की परत को क्षीण कर दो। अन्यथा तुम इससे भाग भी नहीं सकते, दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः, कुछ कर्मों का फल तुम्हें इस जन्म में ही मिल जायेगा और कुछ कर्म आगे आने वाले जन्मों में फलित होने के लिए तुम्हारे साथ रह जायेंगे।

कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि "यदि तुम आग में अपनी उँगलियाँ डालोगे तो तुम आज जलोगे या कल अथवा अगले वर्ष या कभी और अगले जन्म में जलोगे? हाँ, हर किये हुए कर्म का कुछ फल होता है पर वो यहीं और अभी मिल जाता है। वह कई और वर्षों बाद किसी जन्म में मिलेगा, यह बात ठीक नहीं है।"

कुछ लोग ऐसा कहते हैं, पर कर्म के लिए यह एक सही उपमा नहीं है। जैसे तुम आज कुछ बीज बोते हो, तो कुछ बीज २ दिन में ही अंकुरित हो जाते हैं। मटर के बीज डालोगे तो चार पांच दिन में फूटने लगते हैं, इसी तरह यदि तुम नारियल उगाना चाहो तो तीन चार महीने इंतज़ार करना पड़ेगा। आम के फल उगाओगे तो दस वर्ष तक आम आने का इंतज़ार करना होगा पर कटहल उगाओगे तो तुम्हारी अगली पीढ़ी ही उसके फल खा पाएगी।

तरह तरह के बीजों के फलित होने की अलग अलग अवधि है इसी तरह भिन्न भिन्न कर्म अलग अलग समयों में फलित होते हैं। कई बार लोग यह प्रश्न पूछते हैं कि "मैं इतना अच्छा हूँ फिर मेरे साथ जीवन में बुरा क्यों हो रहा है?"

अच्छे लोगों के साथ बुरा हो ही नहीं सकता पर फिर भी तुम्हें ऐसा लगता है तो तुमने भी कभी कुछ बुरा कर्म किया होगा। अभी चाहे तुम अच्छा कर रहे हो, पर पहले का बुरा कर्म अभी बुरे में फलित हो सकता है। कभी कुछ नीम के बीज डाले होंगे तो अभी कड़वे फल का स्वाद ही आएगा, आज यदि आम बोओगे तो आगे कभी उसका फल मिलेगा।

जैसे तुम बीज बोओगे वैसे ही फल मिलेंगे।

सूत्र 13: सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः॥१३॥

इस सूत्र में पतंजलि जीव उत्पत्ति पर प्रकाश डालते हैं, हमारा जन्म कैसे होता है?

जब तक कर्मों की यह जड़ बनी रहती है तब तक उसका फल बार बार मिलता रहता है। जात्यायुर्भोगाः,   जाति, अर्थात तुम किस शरीर में आने वाले हो, तुम कैसे पैदा होंगे - एक चूजे की तरह या कोई जानवर या पक्षी अथवा कोई महिला या पुरुष। तुम्हारा जन्म पहले से तय होता है। तुम्हारा जीवनकाल भी निश्चित होता है। तुम्हें जीवन में क्या दुःख, सुख मिलने वाला है, वह भी तय होता है।

क्यों कोई कानपुर में और क्यों कोई तमिलनाडु में पैदा होता है? क्या इसका कोई उत्तर है? महृषि पतंजलि इस पर प्रकाश डालते हैं। लोग  प्रायः ऐसे पूछते हैं कि क्यों कोई वहां पैदा होता है और कोई दूसरा व्यक्ति कहीं और पैदा होता है, क्यों कोई जीवन में दुखी है और कोई क्यों परेशान है। यह एक बड़ा प्रश्न है जिसका तर्क से कोई उत्तर संभव नहीं है।

ऐसा हमारे  पुराने कर्मों के कारण होता है, जात्यायुर्भोगाः, जाति, आयु, भोग तरह तरह के कर्मों के अनुसार तरह तरह से मिलता है। ऐसा कैसे होता है? देखो, जब भी किसी की मृत्यु होती है, तब उसकी चेतना के साथ उसकी स्मृति पर पड़ी छापें भी जाती हैं। यदि कोई मृत्यु के समय तक भी चिकन, चिकन के बारे में ही सोचता रहे तब उसका जन्म किसी मुर्गियों के बाड़े में हो सकता है। जो भी मन पर छाप बहुत मजबूत होती है, वही बना रहता है उसके अनुसार आत्मा नया शरीर लेती है।

तुम यह प्रयोग भी कर के देख सकते हो। तुम यदि सोते जाते समय कोई विचार या किसी चीज के बारे में सोचते हुए सोओगे तब सुबह का पहला विचार भी वही होता है, बल्कि स्वप्न में भी वही विचार आता है। यदि तुम 4-5 महीने यही प्रयास करोगे तो तुम्हारे भीतर वही सब गुण भी आने लगेंगे।  

जैसे ही तुम उठते हो और यदि अपने कुत्ते की तरह सर हिलाते हो, तो छह महीने तक ऐसे लगातार करने के बाद तुम देखोगे की तुम अनजाने में भी वैसे ही करने लगोगे। तुम सुबह उठते ही ऐसे ही सर हिलाओगे और तुम्हारे अंदर वैसा छाप उतना मजबूत हो जाता है, वही कर्म बनता है।

इसी तरह यदि तुम दिन भर किसी कुत्ते को ही देखते रहो, बार बार किसी कुत्ते की हरकतों को ही देखते रहने से मन पर वैसी छापें पड़ने लगती हैं और मृत्यु के पश्चात मन उन्ही छापों के अनुसार शरीर ले लेता है। इसीलिए यह भी कहते हैं की जीवन के अंतिम क्षण तुम्हारे पूरे जीवनकाल से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। कई बार लोग बुढ़ापे में अपने बच्चों के बहुत मोह में रहते हैं, तो इसीलिए बच्चो का नाम भी भारत में ईश्वर के नाम पर ही रखा जाता है। एक ऐसे ही अजामिल नामक राजा की कहानी है।

अजामिल एक नास्तिक राजा था, वह मरते दम तक नास्तिक ही रहा। परँतु अपने अंतिम क्षणों में उसने अपने पुत्र को पुकारा, "नारायण, नारायण", क्योंकि उनके पुत्र का नाम नारायण था। कथा ऐसे है की ईश्वर को लगा कि वह उन्हें पुकार रहे हैं और उनको मुक्ति मिल गयी।  यह एक कहानी मात्र है जिसमें अजामिल के गलती से भी ईश्वर को पुकारने से उन्हें मुक्ति मिल गयी। यह अतिश्योक्ति है परन्तु वास्तविकता में भी मृत्यु के समय पड़ी मन की अंतिम छाप अथवा संस्कार पूरे जीवनकाल से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। 

इसी तरह एक और ज्ञानी बुद्धपुरुष की कहानी है। एक बार एक ऋषि नदी के किनारे ध्यान कर रहे थे और उन्होंने नदी में एक छोटे से हिरन के बच्चे को डूबते हुए देखा। करुणावश ऋषि ने नदी में छलांग लगा कर उस हिरन को बचाया और उसकी प्राथमिक चिकित्सा की। उसके बाद ऋषि ने उस हिरन के बच्चे को अपने पास ही रख कर देखभाल करना शुरू कर दिया। समय के साथ उन्हें हिरन से बड़ा मोह हो गया, आगे ऐसा कहते हैं कि जब ऋषि की मृत्यु हुई तो उन्हें अगले जन्म हिरन का ही मिला। यह एक अकेली कथा है जिसमें एक ज्ञानी बुद्ध पुरुष को एक पशु की योनि में जन्म मिला।

यह लगभग असंभव बात है कि कोई बुद्ध पुरुष अगले जन्म में किसी पशु की योनि में पैदा हो। परन्तु यह एक जड़भरत की कथा का उदाहरण इस लिए दिया जाता है, जिससे अंतिम संस्कार या मन की छाप का महत्त्व बताया जा सके। मन के अंतिम छाप के अनुसार एक ऋषि भी हिरन बन सकते हैं।

यह ऐसे ही है जैसे तुम रात में कुछ देख के, सोच के सोते हो तो वह सुबह भी बना रहता है। कभी जैसे छोटे बच्चे यदि सोने से पहले कोई डरावनी फिल्म देख कर सोते हैं तो उन्हें रात में डरावने सपने आते हैं, ऐसे में बच्चे भी रोते चिल्लाते हैं।

इस सब से मुक्ति का उपाय क्या है?

सूत्र 14: ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात्॥१४॥

यदि यह पुण्य कर्मों के संस्कार होते हैं तब इनसे अधिक प्रसन्नता, उत्साह और आनंद मिलता है और ऐसे ही पाप अथवा बुरे कर्मों के संस्कार से दुःख मिलता है। यह पाप और पुण्य पर ही निर्भर करता है कि तुम्हें क्या मिलेगा। तुम्हारे अच्छे कर्म आनंद और प्रसन्नता में परिणत होते हैं। यदि कोई प्रसन्न है तो उन्होंने पहले कभी कुछ अच्छा किया होगा और यदि कोई दुखी है तो उन्होंने कभी कुछ बुरा कर्म किया होगा। इस तरह महृषि पतंजलि तुम्हारे हर दुःख सुख को किसी पुराने कर्म से जोड़ देते हैं। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि ध्यान के द्वारा ही कर्मों से मुक्ति संभव है। ध्यान के द्वारा कर्मों की छाप मिट जाती है और तुम फिर से खाली और नूतन होते जाते हो। सत्संग और साधना से आत्मा पर पड़ी हुई कर्मों की परत धीरे धीरे क्षीण होने लगती है।

कभी कभी यदि तुम्हें ध्यान में बोरियत होने लगे तो यह जान लेना की तुम्हारे कुछ तो बोरियत के संस्कार होंगे जो मिट जायेंगे। यदि तुम बोर होने से भागते हो तो तुम उससे मुक्त नहीं हो सकते, और यह सोचो की यदि तुम अपने आप के साथ से ही बोर होने लगते हो तो दूसरे तुम्हारे साथ कितना बोर महसूस करते होंगे। कभी ध्यान साधना में तुम्हें बोरियत भी लगे तो भी करते जाना, इसी से तुम और अधिक संवेदनशील बनते जाओगे। इसीलिए इसे तपस कहा गया है, इच्छापूर्वक तुम इसे चुनौती की तरह स्वीकार करो।  अपने आप को ऐसे चुनौती दो कि ऐसा क्या है जिससे तुम पस्त हो जाओगे।

इस भाव से अभ्यास करते करते तुम बोरियत के भी परे चले जाओगे। अपने भीतर ऐसा शौर्य भाव जगाओ, कि कैसे कुछ तुम्हें ध्यान करने से रोक सकता है। इस तरह से तुम इन दुखों के पार जा पाओगे।

<<पिछले पत्र में पढ़ें,ईश्वर प्रणिधानअगले पत्र में पढ़िए,दुःख के पांच स्रोत>>

 

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