योग के बारे में (yoga)

सत्य एवं अहिंसा

पांच यम क्या है?

महर्षि पतंजलि कहते हैं -

सूत्र 30: अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः॥३०॥

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, यह पांच यम हैं।

सूत्र 31: जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्॥३१॥

यह ज्ञान महानतम हैं क्योंकि यह किसी भी समय, किसी भी स्थान पर और किसी भी मनुष्य पर बिना अपवाद के लागू होता है। अधिकतर नियम किसी स्थान और समय विशेष एवं विशेष व्यक्तियों या समूहों पर ही लागू होते हैं, सबके लिए नहीं होते। परन्तु यह पांच यम सार्वभौमिक हैं।

अहिंसा

पशु कभी भी अकारण ही हिंसा नहीं करते। जंगली जानवर भी केवल भूख लगने पर या भोजन के लिए ही शिकार करते हैं। वो कभी भी आनंद मात्र के लिए किसी दूसरे को नहीं मारते परन्तु मनुष्य ऐसा करते हैं। मनुष्य बिना बात के ही शिकार करने जाते रहे हैं। एक अजगर एक महीने भर में एक चूहे को निगल लेता है तो फिर बाकी समय विश्राम करता है। महीने भर के लिए एक चूहा, एक भयावह अजगर के लिए काफी होता है, फिर वह बिना बात किसी और जानवर को हानि नहीं पहुंचाता।

परन्तु मनुष्य ईश्वर के नाम पर, प्रेम के नाम पर एक दूसरे को मार डालते हैं। देश, धर्म, नस्ल के नाम पर लोग बेवजह हिंसा करते हैं, यह बहुत मूर्खता भरी बात है। यह पूरी तरह से विवेक और ज्ञान का अभाव है। एक हिंसक व्यक्ति किसी की भी नहीं सुनता, उसकी सुनने समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है। हिंसा क्यों होती है? इसका कारण क्या है? हिंसा का मूल कारण है मन की झुंझलाहट और हताशा। जब मन में किसी कुंठा से बहुत झुंझलाहट भर जाए तब एक बड़ा प्रश्नचिन्ह  लग जाता है, क्यों, ऐसा क्यों? यही प्रश्न हिंसा में परिवर्तित हो जाता है।

हिंसा की आग अपने आस पास को भी पकड़ लेती है। इसी कारण से लोग भीड़ में हिंसा करते हैं, एक अकेला आदमी जो हिंसक काम शायद न करे पर भीड़ के साथ वो करने लगता है। "मैं जाने अनजाने में भी किसी भी जीव की हत्या नहीं करूँगा। किसी जीव को नहीं मारूंगा।", अहिंसा के ऐसे संकल्प के साथ ही विवेक का प्रस्फुरण होता है।

न चाहते हुए भी हमसे न जाने कितने छोटे जीवों की मृत्यु हो ही जाती है। पैदल चलने से भी कई चींटियां हमारे पैरों के नीचे मर जाती हैं पर इस तरह तुम किसी को मार नहीं रहे होते हो, यह होना प्राकृतिक है। परन्तु किसी को खत्म करने का भाव रखना, हिंसा करने का भाव रखना, तुम्हारे स्वयं के मूल आधार को ही समाप्त कर देता है। हिंसा के भाव को त्याग देना ही अहिंसा है।

जो अभी है और जो बदलता नहीं है, उसके साथ होना सत्य है। यह ज्ञान कि हमारे भीतर ऐसा कुछ है जो बदलता नहीं है, वह सत्य है। सत्य का अर्थ केवल सच बोलना ही नहीं है। क्या तुम समझ रहे हो? सत्य केवल शब्द मात्र नहीं है, बल्कि अपरिवर्तनशील के साथ पूर्ण प्रतिबद्धता सत्य है।

 दुर्भाग्यवश, लोग सत्य को मात्र सच बोलना समझते हैं और कड़वा बोलने लगते हैं।

अहिंसा के आचरण से क्या प्रभाव होता है?

सूत्र 35: अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः॥३५॥

 

यदि तुम अहिंसा में स्थापित होते हो, तब तुम्हारी उपस्थिति मात्र में ही दूसरे जीव हिंसा त्याग देते हैं। कोई तुम्हारे ऊपर हमला भी करने आये पर जैसे ही वह तुम्हारे निकट आते हैं तो तुम्हारी अहिंसक तरंगों के प्रभाव से ही वह हिंसा त्याग देंगे। जैन धर्म को फैलाने वाले महावीर ने अहिंसा पर बड़ा जोर दिया, ऐसा भी कहा जाता है कि जहाँ भी महावीर जाते, उनके आसपास मीलों तक जंगली जानवर भी हिंसा त्याग देते थे। कथाओं में तो ऐसी भी अतिश्योक्ति है कि कांटें भी उनके आस पास मुलायम हो कर चुभना छोड़ देते थे।

पतंजलि कहते हैं, अहिंसा  में प्रतिष्ठित होने से तुम्हारे सानिध्य में भी वैर और हिंसा नहीं रह जाता है।

सूत्र 36: सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्॥३६॥

 

सत्य में स्थित होने से तुम्हारे कर्म में सिद्धि आती है। तुम जो भी काम करते हो उसका फल मिलने लगता है। कई बार लोग बहुत मेहनत करते हैं पर फिर भी उन्हें कोई परिणाम नहीं मिलता है, क्योंकि उनके भीतर कोई सत्य चेतना का भाव नहीं होता है। जब हमारे भीतर सत्य शुद्ध चैतन्य होता है तब किसी भी कर्म का फल तुरंत ही मिलने लगता है, कार्य में सफलता प्राप्त होती है।

सत्य मात्र शब्दों का नहीं है। सत्य चैतन्य का गुण है। यदि तुम झूठ भी बोल रहे होते हो और यह सीधा सीधा कह सकते हो कि  मैं झूठ बोल रहा हूँ, तब वह भी सत्य है। जब भी तुम झूठ बोलते हो तो देखोगे कि तुम्हारी चेतना तितर-बितर होती है, उसमें कुछ ताकत नहीं होती।

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्, जो व्यक्ति सत्य के लिए प्रतिबद्ध है, जो अपनी चेतना के अस्तित्त्व के प्रति निष्ठावान है, उनके लिए सफलता बड़ी आसानी से मिल जाती है, सफलता उनके पीछे आती है। ऐसा नहीं है कि उनको कभी असफलता नहीं मिलती, कभी असफल हो भी सकते हैं परन्तु अंततः सफलता ही मिलती है।

सत्यमेव जयते, हमारे देश में यही कहते आये हैं कि सत्य की ही विजय होती है। कभी यदि ऐसा लगता भी है कि   सत्य परास्त हो रहा है तो भी अंततः सत्य ही जीतता है।

सम्राट अकबर और बुद्धिमान बीरबल की एक कहानी है।

एक बार अकबर ने सत्य के महत्त्व पर कहीं उपदेश सुन लिया और एलान कर दिया कि जो भी देश में झूठ बोलेगा उसे फांसी की सजा दी जाएगी। सम्राट की मनमर्जी का यह कानून तुरंत पारित कर दिया गया।

यह समाचार सुनते ही जनता में बहुत खलबली फ़ैल गयी। सारे वकील एक साथ इकट्ठे हुए और विचार विमर्श करना शुरू किया। वकीलों को लगा कि यह क्या बिना तर्क का कानून है, इससे तो हमारा ही धंधा चौपट हो जायेगा। इससे तो वकालत, वाद विवाद और अदालत के सब काम-काज बर्बाद हो जायेंगे।

दूसरे चौराहे पर सारे व्यापारी और विक्रेता इकट्ठे हुए और एक सुर में बोले कि जिस सामान को हम सबसे बढ़िया बताकर बेचते हैं, वह सब हमारा काम धंधा अब चल ही नहीं पायेगा। सारे ज्योतिषी मिल कर बोले कि अरे, अब तो हम बेरोजगार ही हो गए। सारे पंडित इकट्ठे होकर इसी बात पर मंत्रणा करने लगे। चिकित्सकों का भी यही हाल था, उन्हें भी मरीजों को बहुत जल्दी ठीक हो जाने का झूठा भरोसा दिलाना ही पड़ता था।

सब लोग मिल कर बीरबल के पास पहुंचे और बोले कि महामंत्री अब आप ही कुछ रास्ता सुझाइये, महाराज तो पागल हो गए हैं।

बीरबल ने उन सब को शांत होकर घर जाने को कहा और विश्वास दिलाया कि वह कुछ उपाय करेंगे। अर्धरात्रि में बीरबल महल में प्रवेश कर राजा के शयन-कक्ष में जाने की कोशिश कर रहा था तब वहां के पहरेदारों ने उसे रोककर पूछा, "तुम कहाँ जा रहे हो?"

बीरबल ने जवाब दिया, "मैं फांसी की सजा पाने के लिए जा रहा हूँ।" अब यह एक झूठ था, महामंत्री को मालूम है कि शयन-कक्ष में फांसी की सजा नहीं दी जाती है। परन्तु यदि बीरबल को यह झूठ बोलने के अपराध के लिए फांसी चढाने ले जाया जाता है तब बीरबल की बात सत्य हो जाती है। ऐसे में बीरबल निरपराध हो जाते हैं।

यदि बीरबल को फांसी पर न लटकाया जाए तो कानून का उल्लंघन होता है और लटकाया जाए तब तो बीरबल निरपराध हैं। बुद्धिजीवी मंत्रियों ने बड़ी सभा बुलाई और सत्य क्या है, इस पर वाद विवाद शुरू किया। सम्राट बड़ी दुविधा में पड़ गए, अंत में बीरबल से ही पूछा कि क्या करना चाहिए?

बीरबल ने कहा, सत्य वह नहीं है जो कहा जाता है। जो भी हम कहते हैं वह झूठ बन जाता है। तुम जैसे ही कुछ बोलते हो उसमें जो अस्तित्त्वगत है, वह बोलते ही विकृत हो जाता है। जो अस्तित्त्वगत है, वही सत्य है। जो तुम्हारा सच्चा स्वरूप है उस पर ध्यान रखना ही सत्य का आचरण है। अपने हृदय से सच्चा होना और नेक नीयत होना ही सत्य है। तुम्हारे इरादों में सरलता है क्या, या फिर तुम सामने कुछ दिखाते हो और पीछे कुछ और ही होता है? मन के इरादों में सरलता और स्पष्टता होना सत्य है।

 

<<पिछले पत्र में पढ़ें, अष्टांग योग का परिचय।अगले पत्र में पढ़िए, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। >>

 

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