योग के बारे में (yoga)

अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह

सूत्र 37: अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्॥

सत्य और अहिंसा के बाद तीसरा यम है अस्तेय, अर्थात चोरी नहीं करना। तुम किसी को देखकर कहो कि अरे, काश मेरी आवाज भी उनके जैसे होती, ऐसी इच्छामात्र से ही तुम उनकी आवाज चोरी कर चुके हो। तुम्हें किसी सुन्दर महिला या पुरुष को देखकर ऐसी इच्छा उठती है कि काश, मैं भी उनके जैसे दिखता होता, इसी इच्छामात्र से तुम चोरी कर ही चुके होते हो। दूसरों को देखकर इस तरह उठी इच्छाओं से ईर्ष्या बढ़ती है। लोग चोरी क्यों करते हैं? क्योंकि उन्हें अपने लिए कुछ चाहिए होता है।

अस्तेय के पालन से ईर्ष्या समाप्त हो जाती है। लोग किसी की मुस्कराहट से लेकर प्रसन्नता, खेल खिलोनों से लेकर साधना की प्रक्रियाओं तक तरह तरह की चीज़ों को चोरी करते हैं। ऐसी चीज़ें काम भी नहीं करती, जो लोग चोरी करते हैं वो गरीब ही रहते हैं। यदि तुम अस्तेय में पूरी निष्ठा से प्रतिबद्ध रहते हो तब उसका प्रभाव होता है, सर्व रत्नो उपलब्धि, सभी तरह के धन तुम्हें प्राप्त होते हैं, सभी तरह की सम्पन्नता तुम्हें मिलती है।

चोरी करने का थोड़ा सा भी भाव तुम्हें गरीब बना कर रख सकता है। क्या तुम यह समझ रहे हो? अधिकतर समय गरीबी स्वयं निर्मित ही होती है। जितना हो सके उतना समेट लेने का ओछापन तुम्हारे भाग्य को मिट्टी में मिला देता है। अस्तेय, चोरी नहीं करने से सभी सम्पन्नता आती ही है।

 

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सूत्र 38: ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः॥३८॥

 

ब्रह्मचर्य से तुम्हारे भीतर बल आता है। ब्रह्मचर्य का थोड़ा और गहरा अर्थ है - ब्रह्मन अर्थात अनंत चैतन्य और ब्रह्मचर्य अर्थात अनंत चैतन्य में रहना, अपने सच्चे विशाल स्वरुप को जानना। स्वयं को केवल शरीर न जानकर अपने अनंत चैतन्य और प्रकाश पुंज जैसे स्वरुप को जानना ब्रह्मचर्य है। ऐसा होने से ब्रह्मचर्य स्वतः ही घटता है।

क्या तुम यह समझ रहे हो? जब तुम गहरे ध्यान में होते हो तब तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुम साठ सत्तर किलो के भारी शरीर हो, तुम्हें हल्का महसूस होता है जैसे तुम पंख जैसे हलके हो। गहरे ध्यान में तुम्हें शरीर का भान नहीं रहता है। जितना तुम प्रफुल्लित होते हो, जितना तुम अनंत चैतन्य के साथ तादात्म्य में होते हो, उतना तुम्हें शरीर और उसके तनाव का पता नहीं रहता। वह ब्रह्मचर्य है।

चैतन्य के अनंतता का भाव और उसमें रमन करने से बड़ी ताकत और उत्साह मिलता है। कोई व्यक्ति यदि बहुत संकुचित सोच का हो, केवल यही सोचता रहे कि वो किसके साथ सम्भोग कर सकता है, तुम देखोगे उनका ऊर्जा का स्तर बहुत नीचे होता है। वह बड़े कुंठित, जड़ और अनाकर्षक होते हैं। उनके चारो तरफ भी ऐसी भारी नकारात्मक तरंगों का आवरण बन जाता है जिसमें न कोई उत्साह  होता है न  ही कोई ताकत। क्या तुमने ऐसा देखा है? तुम पाओगे कि मदिरालय, वेश्यालय या यहाँ वहां ऐसी गलियों में लोग कैसा वासना से भरा हुआ भारी मन लिए फिरते हैं और उनमें कोई ताकत नहीं होती। ऐसे लोग कभी भी किसी के पीछे चल देंगे, उन्हें कहाँ जाना है, क्या करना है, ऐसा कुछ पता ही नहीं रहता है।

मुल्ला नसरुद्दीन की एक कथा है -

एक बार सिनेमा हॉल में मुल्ला नसरुद्दीन एक फिल्म देख रहा था जिसमें अभिनेत्री नृत्य कर रही थी। मुल्ला बड़ी प्रतीक्षा से इस नृत्य को देख रहा था और अचानक वह परदे के पास जा कर जमीन पर लेट गया। उसकी पत्नी ने पूछा, क्या हुआ, यह तुम क्या कर रहे हो?

मुल्ला बोला, मुझे इस महिला का नृत्य और नजदीक से देखना है, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि वो कब बैठेगी। मन ऐसी लालसाओं के पीछे भागता रहता है कि उसमें कोई ताकत ही नहीं रहती। ऐसे संकुचित मन में काम वासना, क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, राग और द्वेष जैसे नकारात्मक भावनाओं के तूफ़ान उठते रहते हैं। जब ऐसी भावनाएं प्रबल होती हैं तब न सत्य का ज्ञान रहता है न प्रकृति का। मन यदि व्याकुल हो तो तुम अपने आस पास प्रकृति की सुंदरता को भी नहीं देख पाते हो, सब कुछ ही धुंधला लगता है।

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः, जब ब्रह्मचर्य तुम में प्रतिष्ठित हो जाता है तब तुम्हें बड़ी शक्ति मिलती है और तुम अपने आप को केवल शरीर न मानकर चेतना जैसे देख पाते हो।

सूत्र 39: अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोधः॥३९॥

 

जब तुम संचय नहीं करते हो तब तुम्हें पिछले जन्मों का और अलग अलग प्रजातियों का भी ज्ञान मिलने लगता है। तुम्हारे भीतर के संवाद में स्पष्टता आती है। क्या तुम समझ रहे हो?

जब कोई व्यक्ति केवल यही रट लगा के बैठा हो कि 'मुझे और चाहिए, मुझे और चाहिए' तब तुम देखोगे कि वह भयग्रस्त होता है और जीवन की अनंतता से अनभिज्ञ रहता है। यह जीवन युगों युगों से चला आ रहा है और आगे भी चलता ही रहेगा। अपरिग्रह, संचय न करने का सीधा अर्थ है, अपने ऊपर विश्वास होना, अपने सामर्थ्य पर विश्वास होना और अपने स्वयं के स्वरुप का ज्ञान। जैसे यदि तुम्हें रोटी बनाना आता है तब तुम सात दिन के लिए रोटी इकठ्ठा बना कर नहीं रखते, वह सड़ जाती हैं। एक चीन की कहावत है, जो तुम बांटते हो वह बढ़ता है, जो तुम फैलाते जाते हो, वह तुम्हारे पास और अधिक हो जाता है और जो तुम पकड़ कर रखते हो वह तुम खो ही बैठते हो। जितना तुम सबके लिए बिखेरते हो उतना वो तुम्हारे पास बढ़ता जाता है।

जो लोग बहुत डरे हुए होते हैं वही बड़े कंजूस होते हैं, जिन्हें अपने सामर्थ्य का भी कुछ अता-पता नहीं होता है। जो बड़े स्वार्थी और कंजूस होते हैं वही अधिक संचय करते हैं। एक बार एक बड़ा अमीर आदमी मृत्युशैय्या पर लेटा हुआ था परन्तु उसका पूरा ध्यान टीवी पर अपने शेयर्स के बदलते मूल्यों पर था कि क्या उसका संचित धन बढ़ रहा है कि नहीं? जिस व्यक्ति की किसी भी क्षण जान जा सकती हो उसको यह विश्वास ही नहीं था कि उसे ये सब छोड़ कर जाना होगा। यदि संभव होता तो लोग मृत्यु के बाद भी अपना इकठ्ठा किया हुआ धन भी अपने साथ स्थानांतरित करवा ले जाते। ऐसा होता तो वकीलों को वसीयत ही नहीं लिखनी पड़ती परन्तु ऐसा संभव नहीं है। लोग बस इकठ्ठा करते जाते हैं और फिर मर जाते हैं। अच्छा इसका अर्थ यह नहीं समझना कि तुम्हें धन की बचत नहीं करनी चाहिए।

जब भी तुम लोगों को कुछ देते हो, तब तुम्हें कुछ न कुछ मिलता है, कुछ दुआएं मिलती ही हैं। यदि तुम बहुत दुखी हो तो जरूरतमंदों को कुछ दान करो, तुम पाओगे कि तुम्हारी चेतना में एक बदलाव आता है। कभी कभी जब तुम कुछ लोगों से कुछ उपहार ग्रहण करते हो तब तुम दुखी हो जाते हो।

प्राचीन समय में लोग इस विज्ञान को भलीभांति समझते थे। तभी से यह नियम था कि यदि कोई तुम्हारा उपहार या दान स्वीकार कर लेता है तो देने वाले दाता को कृतज्ञ होना चाहिए, "अरे, हम धन्य हुए कि आपने उपहार स्वीकार किया।" जब भी कोई भी ज्ञानी, सन्यासी या बुद्धपुरुष आपके यहाँ का कुछ अन्न, जल, फल, दान स्वीकार करते हैं, तब उनके इस स्वीकार करने के लिए जो धन्यभागी होने का भाव है उसको व्यक्त करने के लिए इस सबके उपरान्त और कुछ देते हैं उसे ही दक्षिणा कहा जाता है। देने वाले को धन्यभागी होना चाहिए, क्योंकि उस दान दक्षिणा के साथ कुछ भूतकाल के कर्म और उनके संस्कार भी चले जाते हैं।

ऐसे वस्तुओं का संचय नहीं करना, स्वीकार नहीं करना अपरिग्रह है। परिग्रह है हमेशा लेते ही रहना, कौन मुझे क्या दे सकता है, यह देखते रहना परिग्रह है। तुम कभी यह प्रयोग कर के देखो, कुछ दिनों के लिए किसी से कुछ भी ग्रहण मत करो, तुम पाओगे कि चेतना में एक बदलाव आ जाता है। समाज में ऐसा पूरी तरह संभव नहीं है परन्तु कुछ लोग इसका अति अभ्यास भी करते हैं। तुम्हें अति नहीं करनी है पर यह जागरूकता बनाये रखनी है।

सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, यह पांच यम हैं। यही पांच महाव्रत हैं, जितना अधिक तुम इनका पालन करते हो उतना अधिक इनका प्रभाव होने लगता है। 

सूत्र 33: वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्॥३३॥

 

यदि तुम्हारा मन यह कहता है कि मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता, जैसा मेरा मन करेगा मैं वैसा करूँगा। मेरा मन हिंसा करने का करेगा तो करूँगा। ऐसा होने पर उसके विपरीत ही करने लगो। इसको बताने से पूर्व महृषि पांच नियमों की बात करते हैं। पांच नियम क्या हैं? जानने के लिए पढ़िए अगला ज्ञान पत्र

 

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