योग के बारे में (yoga)

अष्टांग योग के पांच नियम

शौच और संतोष एक ही साथ आते हैं। बिना शौच के संतोष भी नहीं हो सकता है। हमेशा लोगों के साथ ही लगे रहना, हमेशा दूसरों को गले ही लगाते रहना, ऐसा करते रहने से तुम अपनी ऊर्जा को अपने में समाहित नहीं रख पाते हो। हमेशा किसी न किसी के साथ रहने से स्वयं के होने का एहसास ही नहीं होता है। तुम्हें पता ही नहीं चलता कि तुम कौन हो? कुछ समय के लिए ही सही, अपने स्वयं के साथ रहना सीखो। ऐसे ही तुम्हें अपनी कमजोरियों और शक्तियों का पता चलने लगेगा। यही शौच है एवं इसके साथ ही संतोष और प्रसन्नता संभव है।

तुम किसी दिन जो भी कुछ करो, वह सब काम बिगड़ जाए, कुछ भी सफल न हो, तब भी क्या तुम मुस्कुराते हुए कह सकते हो कि मैंने जो भी प्रयास किया, सब विफल हो गया ? तुम्हारे अंदर ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि कुछ भी हो, तुम अपनी मुस्कराहट न खो बैठो। जो भी होता है, होता रहे, पर यह जानो कि तुम इन सब घटनाओं और परिस्थितियों के परे हो। 

 

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जीवन में पीछे मुड़कर देखो कि जब तुम बच्चे थे तो न जाने कितने बार तुम रोये होंगे। न जाने कितने बार तुम्हें ऐसे लगा कि तुम्हारे ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है और तुम कभी कभी रोते रोते ही सो गए होगे। इस सबके बावजूद, तुम आज सही सलामत ज़िन्दा हो। उन सब क्षणों को याद करो जब तुम्हारे किसी प्रिय की मृत्यु हो गयी या किसी प्रेमी प्रेमिका से तुम्हारा सम्बन्ध छूट गया और तुम्हें लगा कि बस अब जीवन खत्म, सब कुछ नष्ट हो गया, पर नहीं, वास्तव में तुम्हें कुछ भी नहीं हुआ।

एक दिन इटली में एक महिला मेरे पास आयी और बोली कि गुरूजी, मेरी बेटी की मृत्य हुए अभी छह महीने भी नहीं हुए और मैं शादी पार्टियों में जाने लगी हूँ। मैं दुखी नहीं हूँ और स्वाभाविक रूप से व्यवहार कर रही हूँ। क्या ऐसा करना ठीक है? जब उसकी मृत्यु हुई थी, तब मैं बेशक दुखी हुई थी पर उसके बाद अब मैं ठीक हूँ। मैंने कहा, एकदम ठीक है। तुम्हें दुखी आत्मा बने रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह  महिला बोली कि गुरुदेव, मैं पूरा एक महीना दुखी रही, मैंने उसके जाने का दर्द सहा। मैं इससे आगे बढ़ना चाहती हूँ परन्तु लोग मुझे दुखी देखने की अपेक्षा करते हैं।

यह बात सत्य है। लोग तुम्हें जीवन भर रोते हुए ही देखना चाहते हैं। लोगों ने उसे ही स्वाभाविक मान लिया है। यदि किसी व्यक्ति में जीवन में भूतकाल को छोड़कर आगे बढ़ने का साहस होता भी है तो उन्हें लगता है कि इस व्यक्ति में कुछ गड़बड़ है। जब सुनामी आयी तब उसके पीड़ित लोगों को नवचेतना शिविर करवाया गया। शिविर के दो तीन दिनों में ही लोग पुनः गाने, मुस्कुराने और नाचने लगे। बहुत लोगों को यह बात समझ ही नहीं आयी कि यह कैसे संभव है।

दुःख-दर्द केवल परिधि पर हो सकता है, केंद्र में नहीं। जैसे एक बादल रोशनी को कुछ समय के लिए ढक सकता है। तुम्हारा स्वयं का स्वभाव ही आनंद है, इसके ऊपर की परत को हटाना होगा। कुछ भी दुर्घटना हो, आपदा हो परन्तु दृढ इच्छाशक्ति से व्यक्ति पुनः अपने स्वभाव में स्थापित हो सकता है। संतोष दूसरा नियम है।

इसका अर्थ यह नहीं कि तुम प्रसन्न होने का नाटक करने लगो। किसी की मृत्यु यदि हो जाए तो तुम यह नहीं कह सकते, "ठीक है, मैं खुश रहने वाला हूँ।" यह नहीं करना है। हमारे पूर्वजों ने इसके लिए एक तरीका निकाला है कि यदि परिवार में किसी की मृत्यु हो जाए तो उसके करीबी रिश्तेदार दस दिन के लिए अशौच में माने जाते हैं। इन दस दिनों में तुम जी भर के रो-पीट सकते हो। और तो और, यदि तुम नहीं रोते तो आजकल लोग पेशेवर रोने वालों को बुलाते हैं। पेशेवर रुदाली करने वाले लोग छाती पीट पीट कर रोते हैं और मृत व्यक्ति की प्रशंसा करते हैं। ऐसे सब करने के बाद वो लोग कुछ पैसे लेते हैं और घर से निकलते ही प्रसन्न होकर जाते हैं। जब ये लोग ऐसे रोते हैं तो उनको देखकर रिश्तेदारों और प्रियजनों की भावनाएं भी बाहर आने लगती हैं और वो भी अपना दुःख व्यक्त कर दस दिन बाद प्रसन्न हो सकते हैं। ग्यारहवें दिन ब्राह्मण भोज होता है, नयी पगड़ियां बाँधी जाती हैं और मिठाइयां बांटी जाती हैं।

ब्राह्मण भोज के दिन कुछ घी और पानी लेकर आँखों पर ठंडक के लिए लगाया जाता है और इसके साथ यह निश्चय किया जाता है कि अच्छा, अब जीवन में आगे बढ़ते हैं। उस घर के लोगों के लिए दस दिन का शोक, रिश्तदारों के लिए तीन दिन का और दूर के रिश्तेदारों के लिए एक ही दिन का शोक माना गया है। इस तरह मृत्यु-शोक मनाने की भी एक व्यवस्था है। 

यदि किसी आध्यात्मिक व्यक्ति की मृत्यु होती है तो इतना भी नहीं किया जाता है। ऐसे में तो कर क्षण ही उत्सव रहता है क्योंकि आत्मा तो सर्वव्यापी है। इसी तरह किसी शिशु के जन्म पर भी दस दिन के लिए अशौच माना जाता है, क्योंकि उस घर के लोग एक नए जीवात्मा के परिवार में आने से अति उत्साहित और प्रसन्न होते हैं। इन दस दिनों में पूजा पाठ और ऐसे कोई भी सामाजिक दायित्त्व नहीं होते हैं और उस प्रसन्नता में ही सौ प्रतिशत रहा जाता है। दस दिन के उपरान्त पुनः समाज और धर्म के दायित्व निभाने होते हैं। शौच दूसरा नियम है।

तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान की चर्चा पहले के ज्ञान पत्रों में हम कर चुके हैं। तपस से सहनशक्ति बढ़ती है। दुर्भाग्यवश स्वाध्याय को लोग किताबों और शास्त्रों का अध्ययन समझ बैठे हैं। यह बात ठीक भी है पर स्वाध्याय केवल यही नहीं है। शास्त्र और ग्रंथों से स्वाध्याय में सहायता मिल सकती है परन्तु बिना किसी आध्यात्मिक अनुभव के वह सब अर्थहीन है।

ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है ईश्वरीय तत्त्व के लिए समर्पण का भाव। इस पूरे ब्रह्माण्ड के सन्दर्भ में जीवन को देखो, यह अनंत ब्रह्माण्ड करोड़ों करोड़ों वर्षों से है और करोड़ों वर्षों तक बना रहेगा। यह चेतना जो इस जगत का आधार है, उस ईश्वरीय तत्त्व को जानना और उसको समर्पण करना ही ईश्वर प्रणिधान है। ईश्वरीय चेतना जो क्लेशों, कर्मों और उनके कर्मफलों से मुक्त है, जो प्रेम-स्वरुप, पूर्ण जागृत और सचिदानंद है, उसको समर्पण करना ही पांचवा नियम है।

 

शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान  पांच नियम हैं।

सूत्र 33: वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्॥३३॥

जब भी इन नियमों का विलोम तुम्हें परेशान करने लगे, तुम्हारा मन इन नियमों के विपरीत जाने लगे तब उसके विपक्ष की भावनाओं को उकसाओ।

 

सूत्र 34: वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम्॥३४॥

 

हिंसा, असत्य जैसी विपरीत मूल्यों की तीन अवस्थाएं हो सकती हैं - जब वह हमने स्वयं किया हो या हमारे द्वारा किसी से करवाया जाए अथवा ऐसे किसी कृत्य को हम समर्थन करें। जैसे तुम से हिंसा हुआ हो या फिर तुमने किसी और से करवाया क्योंकि तुम स्वयं नहीं करना चाहते अथवा कोई हिंसा करता है और तुम उसके समर्थन में, सहमति में रहते हो। यह तीनों ही अवस्थाएं लोभ, क्रोध और मोह से जनित होती हैं। जब भी तुम लोभ लालच से भरे होते हो तब ही हिंसा, असत्य और बाकी सभी नकारात्मक चीजें जन्मती हैं। लोभ में व्यक्ति को चीजें जैसी हैं, वैसी नहीं दिखती हैं। इसी तरह व्यक्ति जब बहुत क्रोधित हो तब उसका विवेक धूमिल हो जाता है, उसको यह एहसास ही नहीं रहता कि क्या सही है।

जब भी तुम कुछ कर्म करते हो अथवा किसी कर्म की सहमति प्रदान करते हो, तब देखो कि क्या उस कर्म के पीछे तुम्हारे भीतर का क्रोध तो नहीं जो तुमसे ऐसा करवा रहा है। अथवा कहीं मोह भ्रम या माया तो नहीं जो तुम्हें कुछ कर्म करने के लिए प्रेरित कर रहे हो। इसका प्रभाव तीव्र, माध्यम अथवा हल्का हो सकता है। इन सभी से जीवन में केवल दुःख, अज्ञान और अंधकार बढ़ता है।  जब तुम यह जान लेते हो कि इनसे केवल दुःख ही मिलने वाला है तब तुम इन सब प्रवृत्तियों को छोड़ कर इनके विपरीत भावों को उठाते हो। इस ज्ञान से ही तुम इनके परे जा सकते हो।

 

दुनिया भर में लाखों लोग हिंसा में लिप्त हैं क्योंकि उन्हें यह अंदाज़ा ही नहीं कि इससे उन्हें जीवन में और दुःख ही मिलने वाला है। इन सब की परिणति में होने वाले दुःख की अनभिज्ञता ही ऐसे हिंसा का कारण है। संसार में कोई भी दुःख नहीं चाहता है, कोई चींटी, कीड़ा और कॉकरोच भी दुःख नहीं झेलना चाहता है। संसार में कोई भी मानव दुःख नहीं चाहता पर उन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि उनकी ऐसी आपराधिक गतिविधियां केवल दुखदायी ही होंगी। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि इस दुःख को देखो और जाग जाओ।

 

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