योग के बारे में (yoga)

योग के आठ अंग

मानव चेतना एक बीज की भांति है।एक बीज में पेड़,पत्तियों,डालियों,फल,फूल और गुणा होते हुए अपनी संख्या बढ़ाने की संभावना होती है।मानव मन भी ऐसा ही है।एक बीज को अंकुरित होकर खिलने के लिए उपयुक्त जमीन,उचित परिस्थितियों,सूर्य के प्रकाश,पानी और उपयुक्त मिट्टी की आवश्यकता होती है।ऐसा ही है ना??मानव चेतना और मानव मन भी ऐसा ही है!या तो बीज वर्षों तक निष्क्रिय पड़ा रहता है और उसमें मौजूद सभी संभावनाएं केवल उसी तक सीमित रह जाती हैं या फिर वह अंकुरित होकर खिलने लगता है।मानव चेतना में बीज का अंकुरित होना " विवेक " है।विवेक से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है।

इस सृष्टि में मौजूद अन्य सभी जीव जंतु पूरी तरह से प्रकृति के अधीन हैं।उन्हें ना तो विवेक की आवश्यकता है और ना ही मुक्ति की।इसीलिए,वे प्रकृति के नियमों को कभी नहीं तोड़ते हैं।मानव मन,मानव चेतना को मुक्ति प्राप्त होने की संभावना है।मनुष्य को मुक्ति भी दी गई है और साथ ही साथ विवेक भी दिया गया है।विवेक और ज्ञान के द्वारा मानव मन,मानव चेतना प्रगति कर सकती है या फिर जिस स्तर में है,वहीं रह सकती है।आपने देखा होगा कि जानवर सामान्यतः भूख से अधिक कभी नहीं खाते हैं।वे स्वाद के वशीभूत होकर भोजन नहीं खाते हैं।सामान्यतः जानवर समय पर भोजन और संभोग करते हैं।वे समय पर खाते हैं।समय पर विश्राम करते हैं।उनके पास कोई विकल्प नहीं है।लेकिन,मनुष्यों के पास यह मुक्ति होती है कि वे जब भोजन करना चाहें, करें और जो पसंदीदा भोजन खाना चाहें,खाएं।मनुष्य को यह मुक्ति विवेक,ज्ञान और कर्मों के अनुसार परिणाम प्राप्ति के साथ दी गई है।मनुष्य को कर्मों के अनुसार परिणाम प्राप्ति का ज्ञान दिया गया है,ताकि वह कोई विकल्प चुन सके और ज्ञान के साथ आगे बढ़े।क्या आप समझ रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूं??मनुष्य जीवन की यह विशेषता है कि वह विवेक और ज्ञान के द्वारा चलता है।

यह किस प्रकार से कर सकते हैं?विवेक में वृद्धि कैसे कर सकते हैं?बीज को अंकुरित कैसे करना है?एक नन्हा पौधा कैसे उगाना है?जब एक बार नन्हा सा पौधा निकल आया है,तो उसे बार - बार पानी देने की आवश्यकता है।बीज में संभावनाएं हैं।लेकिन,यदि इसे पानी नहीं दिया जाएगा,तो संभावना,संभावना बनकर ही रह जाएगी और फलीभूत नहीं होगी।

ऐसी स्थिति में महर्षि पतंजलि कहते हैं-

" योगाङ्गाऽनुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः"         

।। सूत्र २८।।

योग = योग

अंग = अंग

अनुष्ठानात = के अभ्यास के द्वारा

अशुद्धि = अशुद्धियां

क्षये = नष्ट

ज्ञान = ज्ञान

दीप्ति: = प्रकाश

विवेक ख्याते = विवेक की प्राप्ति

अर्थात्,

" योग के आठ अंगों के निरंतर अभ्यास से अशुद्धियां दूर हो जाती हैं,ज्ञान के प्रकाश एवम् विवेक की प्राप्ति होती है।"

अनुष्ठानात, अर्थात् योग के आठ अंगों के अभ्यास के द्वारा,योग के अंगों पर ध्यान देकर,योग के द्वारा अशुद्धिक्षये, अशुद्धियां दूर हो जाती हैं,

दीप्तिराविवेकख्याते ,विवेक एवम् ज्ञान के प्रकाश की प्राप्ति होती है।बीज के ऊपर का छिल्का बहुत मजबूत होता है।अंकुर इससे होकर ही बाहर निकलता है और फिर अनाज बन जाता है।

अब,

" यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार

धारणा ध्यान समाधयोङष्टावंगानि॥" 

।। सूत्र २९ ।।

यम = संयम

नियम =नियमों का पालन

आसन = आसन

प्राणायाम =श्वास का विनिमयन

प्रत्याहार = मन के लिए विकल्प

धारणा = मन केंद्रित करने की क्षमता

ध्यान = ध्यान

समाधि = चेतना की उच्च अवस्था

अष्ट = आठ

अंगानि = अंग

" संयम,नियमों का पालन,आसन,श्वास का विनिमयन,मन के लिए विकल्प,मन को केन्द्रित करने की क्षमता,ध्यान और चेतना की उच्च अवस्था योग के आठ अंग हैं।"

अब हम प्रत्येक अंग को विस्तार से जानेंगे और यह जानेंगे कि इनमें से प्रत्येक अंग के अभ्यास के द्वारा किस प्रकार के परिणामों की प्राप्ति होती है।

पतंजलि योग सूत्र

जैसे कुर्सी के चार पैर होते हैं,वैसे ही योग के भी आठ अंग होते हैं।योग के आठ पैर या आठ अंग होते हैं। प्रत्येक अंग समस्त अंगों से जुड़ा हुआ है।यदि आप एक अंग को खींचेंगे ,तो बाकी के अंग भी अपने आप खिंच जाएंगे।यदि आप कुर्सी का एक पैर उठाकर खींचते हैं,तो पूरी कुर्सी आपके पास आ जाती है।जब शरीर का विकास हो रहा होता है,तो पूरा शरीर एकसाथ विकसित होता है।सारे अंग एकसाथ विकसित होते हैं।ऐसा नहीं है कि पहले नाक विकसित होती है और फिर कान विकसित होते हैं।शरीर के सभी अंग एकसाथ विकसित होते हैं।इसीलिए,महर्षि पतंजलि कहते हैं कि ये योग के आठ अंग हैं।

 

(ये ज्ञान पत्र  गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के पतंजलि योग सूत्र के व्याख्यान पर आधारित हैं ) 

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