वास्तुशास्त्र को कितना महत्व दिया जाना चाहिए? | How much importance we should give to Vastu Shastra

वास्तुशास्त्र को कितना महत्व दिया जाना चाहिए?

Sri Sri Ravi Shankar:

श्री श्री रवि शंकर

वास्तुशास्त्र का इतिहास

वास्तुशास्त्र अपने आप में एक प्रकार का विज्ञान है। प्राचीन काल में इस विज्ञान का जन्म एवं विकास हुआ था और यह वेदों का ही एक भाग है। परन्तु आज ये हमें पूर्णतः उपलब्ध और प्राप्य नहीं हैं। ये ताड़पत्रों पर लिखे गए थे और प्राचीन विश्वविद्यालयों तथा पुस्तकालयों में रखे जाते थे किन्तु उनमें से अनेक दस्तावेजों (ताड़पत्र) को दीमकों एवं चूहों ने नष्ट कर दिया। परिणामस्वरूप इस ज्ञान का एक बहुत बड़ा भाग आज हमें पूरी तरह से प्राप्त नहीं है। इसीलिए हम पाते हैं कि लोग आज कल वास्तुशास्त्र की अपनी ही संकल्पना या ‘ब्रांड’ विकसित कर उसका बाजारीकरण/व्यापार कर रहे हैं।

वास्तु दोष के लिए आसान उपाय

एक बात याद रखें : कि वास्तु दोष के कारण यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार का कोई कष्ट उठा रहा हो तो याद रखें इन सब से बढ़ कर सर्वोच्च शक्ति की कृपा हम पा सकते है, और "ॐ नमः शिवाय" मंत्र का जाप कर के इसे प्राप्त किया जा सकता है। 

वास्तु के सिद्धांत और बदलाव

वास्तु के कुछ आधारभूत सिद्धांत काफी हद तक स्वतः स्पष्ट होते हैं। उदाहरण के लिए सूर्योदय, पूर्व की ओर होता है, इसलिए हमें अपने घर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर ही रखना चाहिए ताकि उगते सूरज की किरणें सीधे ही घर के भीतर प्रवेश कर सकें। इसलिए व्यक्ति को अपने घर का मुख्य द्वार पूर्व या पश्चिम की ओर ही रखना चाहिए। व्यक्ति को अपने घर का मुख्य द्वार दक्षिण की ओर नहीं रखना चाहिए क्योंकि पुराने ज़माने में श्मशान (मुक्तिधाम) हमेशा दक्षिण दिशा में ही हुआ करते थे। सभी नगर या शहर के दक्षिण दिशा में एक बड़ा सा श्मशान घाट हुआ करता था, जहाँ पर शवदाह किया जाता था। अतः उस दिशा से बह कर आने वाली हवा को घर में घुसने/प्रवेश करने से बचाने के लिए घर का मुख्य द्वार कभी भी दक्षिण में नहीं रखते थे। आजकल ऐसा नहीं है। आज यदि किसी नगर में श्मशान पूर्व या उत्तर दिशा में है, तो हम उस दिशा में अपने घर का मुख्य द्वार नहीं रख सकते। यदि हम रूस देश का उदाहरण लें तो पाएँगे कि रूस में सूर्य दक्षिण दिशा से निकलता है, तो उस देश में घरों का मुख्य द्वार दक्षिण दिशा में ही होता है ताकि घर में ज्यादा से ज्यादा प्रकाश आ सके। अतः रूस में स्थित घरों के लिए भिन्न वास्तु है।

कैलाश पर्वत भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित है। इस दिशा को ईशान कोण कहते हैं। लोगों के लिए यह दिशा बहुत ही पवित्र एवं पूज्य है तथा ईश्वर से जुड़ी हुई है। यह बिलकुल मुस्लिम और मक्का की दिशा जैसे ही है। संसार भर में मुस्लिम मक्का की ओर मुँह कर के ही अपनी दैनिक प्रार्थना करते हैं। भारत में मुस्लिम पश्चिम की ओर मुँह कर के नमाज़ (कुरान) पढ़ते हैं, जबकि जॉर्डन और लेबनान आदि के मुस्लिम पूर्व की ओर मुँह कर के क्योंकि उनके लिए मक्का पूर्व दिशा में है। वास्तुशास्त्र में सूर्य एवं इसकी दिशा को बहुत महत्त्व दिया गया है। यह बात समझते/मानते हुए आस्ट्रेलिया या दक्षिण अमरीका में माना जाने वाला वास्तु बिलकुल ही भिन्न होगा क्योंकि वहां पर सूर्य की दिशा कुछ और ही दीखती है। अतः वास्तुशास्त्र  के नियम और सिद्धांत इन बातों को ध्यान में रख कर बदलते रहते हैं।  

वास्तुशास्त्र का ज्ञान लुप्त होने का कारण  

एक और बात ध्यान देने योग्य है कि किसी सार्वजनिक स्थान का वास्तु मंदिर, दुकान, या आश्रम आदि से बहुत ही भिन्न होता है। वास्तुशास्त्र को ले कर लोगों के मन में कुछ ख़ास तरह की धारणाएं बनी हुई हैं किन्तु वास्तव में इस विज्ञान के संबंध में हमारे पास अत्यंत सीमित ज्ञान और साहित्य उपलब्ध है। वास्तुशास्त्र से संबंधित बहुत सारे दस्तावेज एवं पांडुलिपियों को नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में अथवा औरंगजेब के काल में नष्ट कर दी गईं थीं अथवा जला दी गईं थी। ऐसा कहा जाता है कि औरंगजेब के काल में हजारों-हज़ार पांडुलिपियाँ एवं पुस्तकें खुलेआम जला दी गईं थीं और ये आग छः महीने से भी ज्यादा समय तक जलती रही थी। जो थोड़ी-बहुत पुस्तकें बच गई थीं उन्हें दीमकों और चूहों ने नष्ट कर दिया। ज्ञान बाँटने को ले कर उन दिनों के विद्वान और पंडित ह्रदय से बहुत ज्यादा उदार नहीं थे। वो इन विज्ञानों को केवल अपने शिष्यों और बच्चों को ही पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाया करते थे ताकि ये ज्ञान केवल उन्हीं परिवारों में ही सीमित रहे। इस संकीर्ण मानसिकता के कारण ही इस ज्ञान से सभी का परिचय नहीं हो सका और न ही वे उसे दूसरों तक पहुंचा सके।

वास्तु भी अन्य विज्ञानों में से एक है। योग के साथ भी ऐसा ही हुआ। करीब 40-50 वर्षों पूर्व योग सभी को नहीं सिखाया जाता था। उन दिनों यदि हमें योग सीखना होता था तो हमें किसी विशेष शिक्षक या योग विशेषज्ञ के पास जाना पड़ता था। उन दिनों सभी लोग आम तौर पर अपने घरों में योग का अभ्यास नहीं किया करते थे। यहाँ तक कि उन दिनों प्राणायाम भी नहीं सिखाया जाता था। यहाँ पर ऐसे बहुत सारे प्रौढ़ लोग बैठे हैं जिनकी आयु 50 वर्ष से अधिक है। बताइए क्या उन दिनों सामान्यतः सार्वजनिक रूप से कभी योग सिखाया जाता था। उन दिनों एक विशेष वर्ग या पृष्ठभूमि के लोगों को ही योग सिखाया जाता था। शिक्षक योग का द्वार यूँ ही सबके लिए नहीं खोल दिया करते थे।

भारत में हमने अपना बहुत सारा बहुमूल्य ज्ञान केवल कठोर और रूढ़िवादी होने के कारण खो दिया। केवल कुछ ही लोगों को उपनयन संस्कार (जनेऊ पहनने) के समय विशेष पंडित जिन्हें संस्कार कराने के लिए विशेष तौर पर बुलाया जाता था, के द्वारा एक या दो प्राणायाम एवं श्वसन क्रिया सिखाई जाती थी। इसके बाद किसी को कुछ नहीं सिखाया जाता था।

महिलाओं के लिए योग

महिलाओं के लिए तो स्थिति और भी गंभीर थी क्योंकि उन्हें प्राणायाम या योग कभी भी नहीं सिखाया गया। इन्हें महिलाओं के लिए निषिद्ध माना जाता था। क्या पहले उन दिनों आपने कभी किसी महिला को प्राणायाम करते देखा था? उस समय महिलाओं के लिए योग सीखना लगभग असंभव ही था। आर्ट ऑफ़ लिविंग फाउंडेशन आरम्भ कर के हमने योग और ज्ञान के द्वार सभी के लिए खोले और इस तरह की पुरानी सभी बेड़ियों को तोड़ दिया। सैकड़ों वर्षों में पहली बार हमने महिलाओं को योग और प्राणायाम तकनीक सीखने और उनका अभ्यास करने के लिए सहयोग दिया और बराबर का सक्षम बनाया।

इस तरह से आर्ट ऑफ़ लिविंग फाउंडेशन ने महिलाओं को भी यह तकनीक सीखने का अनूठा अवसर उपलब्ध कराया। हाँ, उस समय भी कुछ योग शिक्षक थे जो कुछ हद तक ये तकनीक सिखाया करते थे। लेकिन वो केवल मुट्ठीभर ही थे। और यही सबसे बड़ा कारण था कि यह ज्ञान कुछ ही लोगों के मध्य सीमित रह गया। पर अब इसके लिए ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। क्यों? क्योंकि जब हम एक बार गहन ध्यान में जाते हैं तो ध्यान के दौरान जो भी हमारे अनुभव होते हैं वह हमारी प्रगति के लिए आवश्यक होते हैं।

गत सप्ताह हमने विज्ञान भैरव (एक प्राचीन और पवित्र ग्रन्थ जो भगवान् शिव एवं देवी पार्वती के मध्य के संवाद के माध्यम से ध्यान एवं समाधि की विधियों की व्याख्या करता है) पर एक वार्ता रखी थी। मैंने भी इसे पहले नहीं पढ़ा था ; पर जब मैंने इसे पढ़ा तो मुझे लगा कि इस ग्रन्थ में उल्लिखित अनेक तकनीकों का हम अपने एडवांस मेडिटेशन प्रोग्राम में पहले से ही अभ्यास कर रहे हैं। ग्रन्थ में ध्यान के जिन प्रकारों की व्याख्या की गई है, वो पहले से ही हमारे एडवांस कोर्स का हिस्सा हैं। यह साहित्य हमारे एडवांस मेडिटेशन प्रोग्राम में सिखाई जाने वाली तकनीकों के सही होने पर मुहर लगा रही है, जैसा कि मैंने कहा।

इतने पुराने और प्रमाणिक ग्रन्थ में संस्तुत तकनीक हमारे एडवांस मेडिटेशन प्रोग्राम में भी सिखाई जा रही हैं। दोनों का सार एक ही है।

गुरु और ग्रन्थ

अतः जब हम अंतर्मुखी हो जाते हैं- जब हमारा मन अपने स्रोत (स्व) की ओर अभिमुख हो जाता है, तो उस गहन स्थिति में हमें जो भी अनुभूत होता है वह इस ग्रन्थ में उल्लिखित ज्ञान से पूरी तरह से मेल खाता है। इनके बीच कोई भेद /अंतर नहीं होता है।

भारत में एक कहावत है जिसका अर्थ है एक प्रबुद्ध /सिद्ध गुरु के मुख से निकला और ग्रंथों में लिखा ज्ञान-दोनों एक ही होते हैं। उनमें कोई भेद नहीं होता। ये ही वास्तविक सार है और हमें यह समझना चाहिए।

 

3 June 2015 - QA 7