कृपा से ही सर्वोच्च की प्रप्ति हो सकती है !! (Ancient Knowledge)

ज्ञानी के पास जो कुछ है उससे वह खुश है तथा जो कुछ नहीं है उससे भी वह प्रसन्न है। मूर्ख के पास जो भी है उससे वह अप्रसन्न है और जो कुछ नहीं है उसके लिए भी अप्रसन्न। कोई व्यक्ति तुम्हें दुख नहीं देता और न ही कोई वस्तु तुम्हारे जीवन में क्लेश का कारण होती है। यह तुम्हारा अपना मन है जो तुम्हें दुखी बनाता है एवं तुम्हारा खुद का मन ही तुम्हें प्रसन्न और उत्साहित बनाता है। यदि तुम्हारे पास जो कुछ भी है उससे तुम पूरी तरह से तृप्त हो तब जीवन में कोई चाह नहीं होती। यह महत्वपूर्ण है कि आकांक्षाएं हों परंतु यदि अपनी महत्वाकांक्षा के बारे में तुम ज्वरग्रस्त हो तो वह अपने आप में एक अवरोध बन जाता है। नल की बहुत तेज़ धार के नीचे जब प्याले को रखा जाता है तो वह कभी नहीं भर सकेगा। नल के पानी को सही रफ्तार से बहाओगे तब प्याला भर पायेगा। यही होता है उन लोगों के साथ जो बहुत अधिक महत्वाकांक्षी या ज्वरग्रस्त हैं। बस संकल्प रखो "मैं यही चाहता हूं"- और जाने दो।

आराधना का अर्थ 

तुम्हारा पूरा जीवन, हर साँस जो तुम लेते हो उपासना का एक रूप है। भक्ति का अर्थ है आदर एवं सम्मान के साथ प्रेम करना। महज़ आराधना भक्ति नहीं है। आराधना का अर्थ है किसी व्यक्ति के खास गुणों के कारण उनसे प्रेम करना। सत्य सदैव सहज होता है एवं वह सृष्टि के सरलतम रूपों में परिव्याप्त है। परिवर्तन को जानो और अपरिवर्तनशील को देखो। जो बदल रहा है उसे जानो और अचानक ही तुम जीवंत हो उठोगे और इसके साथ ही तुम जड़ता या मृत्यु पर काबू पा सकोगे। मृत्यु से परे हटाकर परिवर्तनशील सृष्टि तुम्हे आकर्षित करती है;अपरिवर्तनशील सृष्टि तुम्हे अमरता की झलक दिखाती है।

 

ईशावास्य उपनिषद के पंद्रहवें पद में एक प्रार्थना है, "हे पालनकर्ता, यह परदा उठाइये।" प्रार्थना यह है कि सत्य का चेहरा एक परदे से ढ़का हुआ है, कृपया उस परदे को उठाइये ताकि मैं सत्य को देख सकूं। जीवन में हम बाह्य आवरण में फंसे रह जाते हैं; इस अदभुत उपहार को हमने अभी तक खोला भी नहीं है। यदि मैं अपने आप सत्य को खोज सकूं तब वह सत्य है ही नहीं क्योंकि सर्वोच्च को केवल कृपा से प्राप्त किया जा सकता है। उस तक मेरे द्वारा नहीं पहुँचा जा सकता।

 

और फिर आत्मानुभूति 

और फिर आत्मानुभूति का एक पद है। तुम्हें यह बोध कराने के लिए कि "मैं वह हूं'', सर्वप्रथम चेतना के सभी गुणों को रास्ता देना होगा। चेतना के विभिन्न पहलू मन को अनुभव करने या अनुभव न करने में समर्थ बनाते हैं। उदाहरण के लिए जब तुम किसी एक व्यक्ति के साथ बातचीत कर रहे होते हो, तुम्हारी चेतना उस वक्त अलग होती है जबकि, जब तुम विभिन्न परिस्थितियों में भीड़ को संबोधित कर रहे होते हो तो उस समय तुम्हारी चेतना कई अलग अलग रूप धारण करती है। जब तुम्हारी बुद्धि तीक्ष्ण और सजग होती है तो चेतना ऐसा रूप लेती है जहां ध्यान नहीं होता। यहां प्रार्थना है ,"तुम्हारी दीप्ति को बिखेरो ताकि मैं तुम्हारे पवित्र रूप को देख सकूं। "प्रार्थना है कि मुझे देखने दें क्योंकि मैं वही हूं ! "सो-हम"।

 

सभी संस्कृतियों में शरीर पर राख मलते हैं। इसका उद्देश्य यह याद दिलाना है कि यह त्वचा राख में बदलने वाली है। यह जानने पर हम अनासक्त हो जाते हैं और यह हमें भूल करने से रोकता है। यदि तुम जानते हो कि कोई राख में परिवर्तित होने वाला है तो तुम फिर कभी उनसे नाराज़ नहीं होगे और उनके प्रति सभी नकारात्मकता गायब हो जाएगी। याद रखो तुमने क्या किया है और अभी भी तुम्हें क्या करना है। "ॐ" मैं का वह असली नाम है जो कि निराकार है। यह हमारा प्रचीनतम नाम है और आत्मा का यह एक नाम तुम गहन ध्यान में सुन सकते हो।

एक प्रार्थना 

सही राह पर ले चलने के लिए एक प्रार्थना है। यह आवाहन है अग्नि के लिए। अग्नि, जिसका अर्थ मूलभूत निष्कलंक चेतना भी है। यह तुम्हारे अन्दर वह आग है जो तुमसे सोचने का कार्य करवाती है और तुम्हें चलाती है। यह तुम्हें क्रोधित या विद्वेषपूर्ण बना सकती है या नकारात्मक भावनाओं को जन्म दे सकती है। हम प्रार्थना ही कर सकते हैं कि "मेरे अन्दर यह अग्नि मुझे सही मार्ग पर लेकर चले। मेरे विचार सदविचार हों,‌ मैं किसी का बुरा न सोचूं"। अग्नि के पास शुद्ध करने का गुण है। यदि कहीं ऐसा कुछ है जिसके लिए हमें प्रार्थना करनी चाहिए तो वह प्रार्थना मेरे अन्दर की इस अग्नि को सही दिशा मिले इसके लिए होनी चाहिए। और, प्रार्थना करो कि "उत्कृष्ट विचार मुझे सही दिशा की ओर ले चलें।"

 

सत्य पर स्वर्ण का आवरण है। जीवन में जो भी आकर्षक है उसका रस लो परंतु अनासक्ति के बोध के साथ क्योंकि उसके पार ही सत्य स्थित है। सर्वशक्तिमान प्रभु से प्रार्थना करो कि तुम्हें उस पार का मार्ग दिखाएं। अन्ततः यह दैवीय चेतना ही है जो अग्नि की तरह अतीत की समस्त मलिनताओं और पापों का नाश करती है। और जब ऐसा होता है तब हम शारीरिक रूप से स्वस्थ तथा आध्यात्मिक रूप से प्रफुल्लित महसूस करते हैं एवं हमारा व्यवहार सहज रूप से मधुर बन जाता है।

 

सौजन्य: दि आर्ट ऑफ लिविंग ब्यूरो ऑफ कम्युनिकेशन्स

 

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