वैराग्य ध्यान के पथ पर अभ्यास के साथ दूसरा पहिया है। इस ज्ञान पत्र में हम वैराग्य के बारे में जानेंगे। महर्षि पतंजलि कहते हैं:

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यं

मन पांच इन्द्रियों के विषय वस्तुओं से बने इस संसार की ओर भागता रहता है। तुम यदि शांत बैठे हो, चाहे तो आँखें खुली हों या बंद, देखो, तुम्हारा मन कहाँ जाता है? तुम्हारा मन कुछ देखने के लिए भागता है, तुम कोई दृश्य, किसी व्यक्ति को देखना चाहते हो। इसी तरह मन कुछ सूंघने, स्वाद लेने, सुनने अथवा स्पर्श करने के लिए अथवा कोई पढ़े सुने विचार की और भागता रहता है। ऐसे किसी भी अनुभव की चाह तुम्हे वर्तमान क्षण में नहीं रहने देती है।

कुछ क्षण के लिए ही सही, तुम कहो कि चाहे कितना भी सुन्दर दृश्य क्यों न हो, मेरी उसे देखने में कोई रूचि नहीं है, कितना भी स्वादिष्ट भोजन क्यों न हो, अभी समय नहीं है और मेरी खाने में अभी कोई रूचि नहीं है, कितना ही सुन्दर संगीत क्यों न हो, अभी इस समय मुझे सुनने में भी कोई आसक्ति नहीं है, कितना भी सुन्दर स्पर्श क्यों न हो, मुझे उसे महसूस करने में भी कोई रूचि नहीं है।

चाहे कुछ ही क्षण के लिए ही सही, अपनी इन्द्रियों को विषय वस्तुओं के प्रति इस लालसा और ज्वरता से मुक्त कर लेना ही वैराग्य है।

केवल कुछ क्षणों के लिए ही सही, मन को भौतिक इन्द्रिय सुख से समेटकर स्वयं में स्थापित कर लेना ही वैराग्य है। यह ध्यान के पथ की दूसरी महत्वपूर्ण आवश्यकता है। जब भी तुम गहरा ध्यान करना चाहते हो, तो तुम्हारा मन वैराग्य में होना चाहिए। बिना वैराग्य के ध्यान संभव ही नहीं है, बिना वैराग्य के ध्यान भी तुम्हें विश्रांति नहीं देगा। फंसा हुआ मन एक के बाद एक इच्छाओं के पीछे भागते भागते थक जाता है। तुम पीछे मुड़ कर अपनी सभी इच्छाओं को देखो, क्या उन्होंने पूरे होने पर कभी भी तुम्हें कोई आराम दिया है? नहीं, उन्होंने कुछ और इच्छाओं को ही जन्म दिया है। फिर मन इन उपजी हुई इच्छाओं में लग जाता है, फिर यह इच्छाएँ भी कुछ संतुष्टि नहीं देती, बल्कि एक और आशा जगाती हैं कि कहीं कुछ और अधिक…ऐसे तुम एक गोल चक्कर काटते हुए झूले में सवार हो जाते हो, जो कहीं पहुँचता नहीं है। तुम्हें ऐसा भ्रम होता है कि तुम कोसों दूर चले हो, पर तुम कहीं पहुँचते ही नहीं। इच्छाओं के पीछे जीवन ऐसी ही एक दौड़ बन जाता है, जिसमें भागते भागते भी कहीं पहुँचते नहीं हैं। जो मन इच्छाओं से भरा हुआ है, वह ध्यान में नहीं उतर सकता।

अब इसमें दो तरह के मत हैं, पहला तो यह कि मन में कोई इच्छा नहीं होनी चाहिए। मन में कोई इच्छा न होना भी एक इच्छा ही है। ऐसे में कुछ लोग अपनी इच्छाओं को मारने में लगे रहते हैं, वह भी घुमा फिरा कर भागते ही रहते हैं और ऐसे कुछ घटता नहीं है।

इस सिद्धांत को अच्छे से समझो, वितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा।

मन की किसी भी इन्द्रिय सुख अथवा कोई भी सुने हुए अलौकिक सुख की चेष्ठा एक बाधा है, मन की यह भागदौड़ बाधा है। ध्यान में कोई भी चाह एक बाधा है, तुमने कभी किसी से सुना कि उनके ध्यान में उन्हें प्रकाश दिखा या फिर कोई तो स्वर्ग से आया और उन्हें हाथ पकड़ कर ले गया और फिर तुम भी आँख बंद कर वही देखने लगते हो। यह सब मिथ्या है।

प्रसन्नता की लालसा से मुक्ति

प्रसन्नता की चाह तुम्हें दुखी कर देती है, यह परखो कि जब भी तुम अप्रसन्न अथवा दुखी हो, तो उसके पीछे तुम्हारी प्रसन्नता की आकांक्षा ही है। प्रसन्नता की लालसा दुःख ले आती है। यदि तुम प्रसन्नता के लिए लालायित नहीं होते, तो तुम प्रसन्न होते हो। तुम्हारी प्रसन्नता की लालसा दुःख को आमंत्रित करती है। जब तुम प्रसन्नता की परवाह नहीं करते हो, तब तुम मुक्त हो जाते हो और जब तुम मुक्ति की भी परवाह नहीं करते हो, तब तुम प्रेम को प्राप्त होते हो। प्रसन्नता के लिए परवाह न करना पहला कदम है। दूसरा कदम है, परम वैराग्य, जब तुम मुक्ति की भी परवाह नहीं करते… तब तुम मुक्त होते हो।

प्रसन्नता मन की एक अवधारणा मात्र है। तुम्हें लगता है कि जो तुम चाहते हो, यदि वह सब तुम्हारे पास आ जाए, तो तुम प्रसन्न हो जाओगे। जो भी तुम चाहते हो, वह सब तुम्हारे पास हो, क्या तुम तब प्रसन्न हो जाओगे? प्रसन्नता की इस लालसा को विराम देना ही वैराग्य है।

इसका अर्थ यह नहीं कि तुम्हें दुखी होना चाहिए, ऐसा नहीं है, इसका अर्थ यह भी नहीं कि तुम्हें आनंद नहीं उठाना चाहिए, पर प्रसन्नता की लालसा से जब मन मुक्त होता है, तभी तुम ध्यान में उतरते हो। तब ही योग संभव है।

अपने कपोल सपनों और कल्पनाओं को नष्ट कर दो। अपने सभी सपनों और कल्पनाओं को अग्नि को समर्पित कर दो, उन्हें स्वाहा हो जाने दो। तुम कौनसी बड़ी प्रसन्नता चाहते हो? उसे कितने दिनों तक बना कर रख पाओगे? क्या ऐसा नहीं है? निश्चित रूप से ऐसा ही है। यह सब कुछ समाप्त होने वाला है। इससे पहले कि यह जमीन तुम्हें खा जाए, मुक्त हो जाओ। इस ज्वरता से मुक्त हो जाओ, जिसने तुम्हारे मन को जकड़ रखा है। इस प्रसन्नता की लालसा से मुक्त हो जाओ। तुम ऐसी कौनसी प्रसन्नता को प्राप्त कर लोगे?

तुम्हारे प्रसन्नता के साधन तुरंत ही रसहीन बन जाते हैं, पूरी सजगता और तन्मयता से अपनी हर एक इच्छा को देखो और याद करो कि तुम मर जाने वाले हो। तुम्हें मीठा खाने की बहुत इच्छा है, ठीक है, तुम्हारे पास क्विंटल भर के मीठा आ जाए, तब सजगता से देखो, इसमें क्या है? तुम पाओगे इसमें कुछ भी नहीं है।

और क्या इच्छा होती है, सुन्दर दृश्य? लगातार दृश्य ही देखते जाओ, कितनी देर तक तुम देखते रह पाओगे? तुम कैसे भी बेहतरीन दृश्यों को भी भूल जाते हो, तुम बस कुछ क्षण मात्र ही किसी दृश्य को लगातार देख सकते हो। आँखें थक जाती हैं और तुम्हें उन्हें मूंदना ही पड़ता है। और तुम्हारे मन में क्या इच्छाएँ उठ सकती है? काम वासना? तुम कितना सम्भोग कर सकते हो? जितना कर सकते हो, वह कर के खत्म करो, तुम्हें पता चलेगा कि इसमें भी कुछ नहीं है। कुछ क्षण बाद ही जो शरीर अत्यधिक आकर्षक था, वह सौंदर्यहीन प्रतीत होने लगता है।

मन की असीमित चाह

इसके अलावा और भी कोई विषय वस्तु, इन सभी में सीमितता है, पर यदि तुम मन को परखोगे, तो पाओगे कि मन असीमित की चाह रखता है। मन को असीमित सुख की चाह है, जो पाँच इन्द्रियाँ नहीं दे सकती हैं। यह असंभव है, तुम इस चक्कर में बार बार वही करते करते थक जाते हो।

अधिकतर ऐसे लोग, जो स्वयं को वैरागी मानते हैं, वह संसार को दोष देते रहते हैं, इन्द्रियों को दोष देते हैं और विषय वस्तुओं से भयभीत होकर दूर भागते रहते हैं। उन्हें लगता है कि यह सब बड़ा प्रलोभन है।

उन्हें कुछ प्रलोभित कर सकता है। तुम्हें कैसे कुछ लुभा सकता है? प्रलोभन का भय और भी बुरा है। क्या तुम यह समझ रहे हो? कैसे तुम्हें कुछ प्रलोभित कर सकता है?

इन्द्रियों को दोष न देते हुए, विषय वस्तुओं के प्रति सम्मान और सत्कार के साथ, युक्तिपूर्वक स्वयं में स्थित हो जाना ही वैराग्य है।

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