विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि॥१९॥
पतंजलि आगे व्याख्या करते हैं कि किस तरह तीन गुण हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं – कुछ चीजें सात्विक, कुछ तामसिक और कुछ राजसिक होती हैं। तामसिक गुण में जड़ता अधिक होती है। राजसिक गुण में क्रिया कलाप अधिक होता है। सात्त्विक गुण में अधिक हल्कापन और मुक्ति का अनुभव होता है।
जैसे तुम ताज़े फलों का भोजन करते हो जो तुम्हारी सेहत के लिए अच्छा है तो वह सात्त्विक है और सुखकारी है परन्तु यदि तुम मादक पदार्थों की लत में पड़ जाते हो तो उनमें सुख मिलने का भ्रम मात्र होता है, केवल दुःख और कष्ट ही मिलता है और उनकी आदत से बाहर निकलने में भी बड़ी परेशानी होती है। यह तामसिक गुण का उदाहरण है।
इसी तरह पूरा संसार तीनो गुणों से बना है। तुम कभी कुछ भोजन करते हो जिससे बहुत भारीपन और सुस्ती लगती है तो वह तामसिक और यदि बहुत बैचेनी होती है तो राजसिक गुण प्रधान भोजन होता है। इसी तरह सब कुछ इन्हीं तीनो गुणों से ही होता है। इन गुणों की अलग अलग विशेषताएँ, पहचानने के चिन्ह होते हैं जिनकी व्याख्या पतंजलि ने की है।
द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः॥२०॥
हालांकि चैतन्य हमेशा विशुद्ध, निरंजन और साक्षी मात्र ही होता है परन्तु जब यह बुद्धि के साथ एक हो जाता है तब यह धुंधला हो जाता है या फिर प्रतीत होने लगता है। जो लोग अपनी बुद्धि में अटके होते हैं वो अपने विचारों और मंतव्यों को ही अपना स्वरुप मान बैठते हैं और बड़े परेशान रहते हैं।
आत्मा ही सारे ब्रह्माण्ड का केंद्र है।
सूत्र तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा॥२१॥
जो आत्मज्ञानी नहीं हैं उनके लिए संसार अपने विरोधावास के साथ बना रहता है परन्तु जो आत्मज्ञानी हैं उनके लिए इस संसार का अस्तित्त्व ही नहीं होता है। जो व्यक्ति ज्ञान में जाग गए हैं उनके लिए कोई दुःख नहीं रहता है। उनकी दृष्टि से संसार एकदम अलग ही दिखता है। आत्मज्ञानी के लिए इस संसार का कण कण आनंद से भरा होता है या उसी चैतन्य का भाग होता है परन्तु दूसरे लोगों के लिए यह संसार उनकी दृष्टि के अनुसार उपस्थित रहता है।
कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात्॥२२॥
आत्मज्ञानी स्वयं को इस संसार से पृथक देखते हैं और उनके लिए इसका अस्तित्त्व भी नहीं होता पर दूसरे लोगों के लिए संसार बना रहता है। यह ऐसे ही है जैसे तुम जब किसी विमान से अपने गंतव्य पर उतर जाओ तो तुम्हारी यात्रा समाप्त हो जाती है परन्तु दूसरे यात्रियों को लेकर विमान चलता रहता है। तुम्हारी यात्रा समाप्त हो गयी है तो विमान ठहरा नहीं रहता। इसी तरह संसार विमान या बस के जैसे चलता रहता पर वह आत्मज्ञानी से पृथक है और अब उसके लिए उपस्थित ही नहीं है।
स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः॥२३॥
प्रकृति की अपनी शक्ति होती है। तुम्हारा शरीर तीन गुणों से बना है, सत्त्व, तमस और रजस और यह अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं। इन्हीं गुणों के अनुसार विचार आते हैं, इन्हीं के अनुसार तुम व्यवहार करते हो और यह तीन गुण अपनी प्रकृति के अनुसार घटनाओं और परिस्थितियों को आकर्षित करते हैं।
जब तामसिक गुण हावी होता है तब आलस, नींद और जड़ता बढ़ती है। जब राजसिक गुण बढ़ता है तब मन में बैचेनी रहती है, इच्छाएँ और लालसाएँ अधिक होती हैं।
जब मन में सत्त्व अधिक होता है तब मन जागृत, प्रसन्न, उत्साही और कुशाग्र होता है। यह सभी गुण शरीर में समय, स्थान और प्रकृति के अनुसार बदलते रहते हैं। स्वयं को इन गुणों के साथ पहचानना अज्ञान है, जैसे मैं एक आलसी आदमी हूँ या मैं ऐसा हूँ, वैसा हूँ।
इन गुणों के अनुसार उठने वाली वृत्तियों को देख कर ऐसे न सोचना कि तुम वह वृत्ति हो, यह सब तो गुणों की प्रकृति मात्र है।
एक साधु की बड़ी रोचक कथा है। हिमालय में रहने वाले एक संत हुए जो कहीं भी आ जा सकते थे क्योंकि सभी लोग उन्हें बड़े प्रेम भाव से देखते थे और स्वागत करते थे। यह साधु अपने दोपहर के भोजन के लिए राजमहल में रोज जाया करते थे। वहाँ की महारानी उन्हें स्वर्णथाल में भोजन परोसा करती थी। साधु अपनी रोज दिनचर्या के अनुसार भोजन करते और वापिस चले आते थे।
एक बार ऐसा हुआ कि भोजन करने के बाद उन्होंने एक चांदी का गिलास और सोने की चम्मच उठाई और बिना किसी को बताये इन्हें लेकर चलते बने। अब यह जानकर महल के लोग थोड़े चिंतित और आश्चर्यचकित भी थे। उन्होंने सोचा कि यह कभी कुछ नहीं ले जाते, आज इन्हें अचानक क्या हुआ? बिना किसी को बताये ऐसे अचानक अपने थैले में ले कर एकदम निकल गए। तीन दिन बाद यह संत इस गिलास और चम्मच को वापिस लाए और छोड़ कर चले गए। महल के लोग बड़े हैरान हुए, अब तक उन्होंने ऐसे सोचा था कि शायद संत को इनकी आवश्यकता होगी परन्तु अब वापिस आकर रख देना और भी चकित कर देने वाला था।
तब राजा ने कुछ ज्ञानी लोगों को बुलाया और उन्हें इस मामले की जाँच करने को कहा, “ऐसा क्यों हुआ? इन संत ने पहले यह गिलास चम्मच क्यों लिए और तीसरे दिन वापिस लाकर क्यों रखे?” सोच विचार के बाद इन लोगों ने पूछताछ की कि संत को तीन दिन पहले क्या खिलाया गया था?
जाँच में पता चला कि संत को तीन दिन पहले कुछ डकैतों से जब्त किए हुए अनाज का भोजन खिलाया गया था। कुछ दिन पहले ही एक डकैतों का समूह पकड़ा गया था और उनके पास से मिले हुए अनाज के भण्डार को राजभवन में रख लिया गया था, जिसका भोजन संत को परोसा गया। इस भोजन के प्रभाव से ही संत ने गिलास और चम्मच अपने थैले में रख लिए थे।
पुराने दिनों में यदि कोई कुछ भी असामान्य व्यवहार करता था तो लोग उसकी गहराई तक जाते थे और पता लगाते थे, कि ऐसा क्यों हुआ? संत को एक चोर न मानकर, गहराई में जाने के बाद उन्हें पता चला कि अरे इसका मूल कारण यह है।
तस्य हेतुरविद्या॥२४॥
इन वृत्तियों को अपना स्वरुप मान लेना अज्ञान है। इस अज्ञान से बाहर निकलने का तरीका क्या है? यह बोध, आंतरिक ज्ञान कि शरीर लगातार बदल रहा है, संसार भी हमेशा बदल रहा है। यह पूरा अस्तित्व दृव्य जैसे है, तरल अवस्था में है। यह सब अपनी प्रकृति के अनुसार सतत परिवर्तित हो रहा है।
इस सब में यह निश्चित रूप से जानो कि “मैं शरीर नहीं हूँ। मैं आत्मा हूँ। मैं नित्य, निरंजन, अकिंचन, प्रकृतियों से मुक्त और जगत से अनछुआ हूँ। यह शरीर खाली और खोखला है और सतत बदलता रहता है। इस शरीर का कण कण लगातार बदलता रहता है। मन भी बदलता रहता है।”
यह निश्चित ज्ञान ही वृत्तियों के चक्कर से बाहर आने का रास्ता है।