विशोका वा ज्योतिष्मती॥

कभी तुम यदि किसी दुखी व्यक्ति के पास बैठो तो देखोगे कि थोड़ी देर में तुम भी दुखी होने लगते हो। इसी तरह यदि कोई प्रसन्नता और अत्यधिक उत्साह से भरा हुआ है और तुम उनके पास जा कर बैठो तो थोड़ी देर में तुम भी हंसना, खेलना शुरू कर देते हो। यदि तुम वास्तव में देखो तो पाओगे कि प्रसन्नता और दुःख में रहने के लिए तुमने ही मन को प्रशिक्षित किया होता है। 

यदि तुमने उदास रहने की आदत बना रखी है, तब तुम्हें दुखी होने के लिए कोई विशेष कारण की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। यह तुम्हारा एक दूसरा स्वभाव ही बन जाता है और मुँह मसोसकर शिकायतें करने में ही तुम्हें आनन्द आने लगता है। अधिकतर वृद्धाश्रमों में तुम यही होता देखोगे, वहाँ लोग बिना बात के भी शिकायतें करते ही रहते हैं। उनका उदास चेहरा देखकर तुम्हें भी आश्चर्य ही होगा कि बिना बात के लोग क्यों दुखी हुए बैठे हैं। 

तुम्हें यह देख कर हैरानी होगी कि उन लोगों ने जीवन में जो भी करना था, वह सब किया है। जो उनकी आवश्यकताएँ हैं, वह भी सब पूरी की जा रही हैं। तब भी बिना जरुरत के बहुत लोग दुखी होने का कारण ढूंढ ही लेते हैं। 

कुछ लोग बुढ़ापे में इसलिए भी दुखी होते हैं कि वे इस उम्र में काम नहीं कर पाते हैं। अब यह तो शरीर का स्वभाव है। तुम अस्सी वर्ष की उम्र में अपने तीस बरस की तरह चार किलोमीटर नहीं भाग सकते, इस बात के लिए दुखी होना बेवकूफी है। 

एक बार एक वृद्ध व्यक्ति मुझसे मिलने आए, मैंने उन्हें पूछा कि क्या आप खुश हैं? वह बोले, “देखिए गुरूजी, एक समय था जब मैं दिन में सोलह घंटे काम कर पाता था, शाम की सैर पर भी जाता था, परन्तु अब मैं उतना कुछ नहीं कर पाता हूँ। बहुत जल्दी ही कुछ घंटे में थक जाता हूँ। मैं अपने भीतर पुरानी जैसी शक्ति पुनः कैसे लाऊँ?” 

मैंने पूछा, आपको इस उम्र में उतना काम कर के क्या ही करना है।

उन्हें अपने भीतर तो तंदरुस्ती की टीस रहती ही है पर शरीर का अपना स्वभाव है। बूढ़े होने के विचार मात्र से ही व्यक्ति दुखी हो जाता है। इस तरह की उदासी से ऐसे व्यक्ति को कोई भी बाहर नहीं निकाल सकता, क्योंकि यह स्वयं की बनाई हुई उदासी है। ऐसे दुखी मन के साथ व्यक्ति तुनकमिजाज, गुस्सैल और तनावग्रस्त रहता है। ऐसी नकारात्मकता में डूब कर उनका सारा जीवन कट जाता है और वे ऐसे ही मर जाते हैं। 

महृषि पतंजलि कहते हैं,

विशोक, दुःख के पार जाओ। दुखी होना तुम्हारी आदत मात्र है। जैसे ही तुम अपने मन की ओर ध्यान दोगे, दुःख को देखोगे तब पाओगे कि वह निराधार है, स्वयं की बनाई हुई आदत है। यह जागरूकता आने मात्र से ही दुःख मिट जाएगा, तुम दुःख से मुक्त हो जाओगे। 

यह एक धारणा मात्र है। इसी तरह एक धारणा यह भी हो सकती है कि लोग मेरा आदर नहीं करते हैं या फिर मैं मूर्ख हूँ, यह सब निराधार विचार हैं। क्यों कोई तुम्हारा आदर नहीं करेगा? अरे तुम मूर्ख भी कैसे हो सकते हो? मूर्खता तुलनात्मक ही हो सकती है। जो तुमसे अधिक मूर्ख हैं, उनके लिए तो तुम समझदार ही हुए। मूर्खता का भी तो मानक है, तुम स्वयं को अपने नीचे वालों से तुलना करो। 

तुम्हारी ऐसी सभी तुलनाएँ तुम्हें दुखी कर सकती हैं। स्वयं की दूसरों से तुलना मत करो, तब तुम अधिक प्रसन्न रहोगे। 

विशोक, अर्थात मन को ऐसी सभी धारणाओं के उपजे दुःख से मुक्त कर लेना। 

और ज्योतिष्मती प्रज्ञाः, अपने पूरे मन को प्रकाश, एक ज्योति की तरह देखो। तुम्हारी चेतना एक ज्योति ही है, तुम्हारा मन भी ज्योति ही है, स्वयं को यह याद दिलाओ। क्योंकि तुम्हारा मन एक ज्योति की तरह है इसलिए तुम्हारा पूरा शरीर काम कर रहा है, नहीं तो तुम एक बुझे हुए मोमबत्ती के जैसे होते। 

जैसे कोई भी ज्योति मोमबत्ती की मोम और ऑक्सीजन का प्रयोग कर ज्वलित रहती है, इसी तरह जीवन में तुम भी ऑक्सीजन लेते हो और पदार्थ पर जीवित बने रहते हो। जैसे ज्योति मोम, बाती और ऑक्सीजन पर चलती है उसी तरह तुम्हारा मन शरीर को बाती और उसके भोजन को मोम की तरह लेकर ऑक्सीजन पर चलता है। जैसे ज्योति प्रकाश बिखेरती है उसी तरह यह मन और चेतना जीवन को प्रदर्शित करती है।

जीवन और ज्योति में बड़ी समानता है। किसी जलती हुई मोमबत्ती पर यदि कोई बर्तन को उल्टा कर रख दें तो कुछ ही समय में वह बुझ जाती है उसी तरह तुम्हें भी यदि बिना खिड़की झरोखों के कमरे में बंद कर दिया जाए तो तुम्हारे भीतर का जीवन भी कुछ समय में चला जाता है। तुम जो भी मोमबत्ती के साथ करते हो वही यदि अपने साथ करने लगो, तब कुछ समान ही प्रतिक्रिया आती है। 

जैसे मोम अधिक डालने से ज्योति अधिक देर तक और तेज जलती है इसी तरह शरीर में भोजन डालने से जीवन की ज्योति अधिक देर तक चलती है। यदि बाती बहुत जल चुकी हो तब कितना भी मोम डालने से वह ज्यादा देर नहीं चल पाती। ऐसे ही बहुत समय के बाद शरीर भी, कितने भी भोजन खिलाने पर एक सीमा से अधिक दिन तक नहीं चल सकता है।   

यह शरीर बाती की तरह है और मन ज्योति की तरह है। जैसे ज्योति बाती के चारों ओर है उसी तरह यह शरीर ज्योतिष्मती प्रज्ञा को संभाले हुए है।

विशोका ज्योतिष्मती

प्रसन्न रहो और यह भी याद रखो कि मन प्रकाश के पुंज जैसा है। मन पदार्थ नहीं है, मन ऊर्जा है, तुम भी ऊर्जा ही हो।

आगे पतंजलि कहते हैं, 

मन जल जैसे है, इसे आत्मज्ञानी की केंद्रित रखो।

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