यम और नियम की चर्चा के बाद महर्षि पतंजलि आसन को परिभाषित करते हुए कहते हैं:

आसन

स्थिरसुखमासनम्॥४६॥

आसन क्या है? स्थिरसुखमासनम् – जो स्थिर भी हो और सुखदायक अर्थात आरामदायक भी हो, वह आसन है। अधिकतर जब हम आराम से बैठे होते हैं तो स्थिर नहीं होते और यदि स्थिर और सीधे बैठते हैं तो तने हुए होते हैं जिसमें आराम नहीं होता। आसन अर्थात् जब तुम स्थिर भी हो और सुखपूर्वक उस अवस्था में हो।

प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्॥४७॥

आसन में सबसे महत्त्वपूर्ण है, प्रयत्न को शिथिल छोड़ना। शरीर को महसूस करते हुए एवं प्रयत्न को ढीला छोड़ते हुए अनंतता का अनुभव करना, अनंतसमापत्तिभ्याम् – स्वयं को अनंत आकाश से एक महसूस करना ही आसन है। जब भी तुम जागरूकतापूर्वक आसन करते हो तब क्या होता है? तुम्हें आसन के अभ्यास से अपने भीतर हल्कापन और खाली आकाश जैसे लगता है। प्रयत्नशैथिल्य – प्रयत्न को छोड़ना महत्त्वपूर्ण है। जब तुम सुखपूर्वक किसी आसन में बैठते हो तब जो बैठने मात्र का आनंद है वही सुख है। तुम आराम से बैठते हो और महसूस करते हो, ‘अरे वाह। बैठने का ही कितना मजा है’, ऐसे कर के देखो कि तुम्हें कैसा अनुभव होता है।

आसन में प्रयत्न को शिथिल छोड़कर अनंतता को अनुभव करने से क्या प्रभाव होता है?

ततो द्वन्द्वानभिघातः॥४८

आसन तुम्हारे भीतर के द्वन्द और झंझवातों पर चोट करता है। यह तुम्हारे अंदर से संघर्ष और द्वन्द को उखाड़ फेंकता है। द्वन्द्व अनभिघातः, जब भी तुम उलझन में हो, मन द्वन्द की स्थिति में हो तब आसन करने बैठो, तुम पाओगे कि आसन करने से तुरंत ही मन में स्पष्टता आने लगती है। आसन का प्रभाव है कि यह तुम्हारे अंदर के संदेह, उलझन और द्वन्द को मिटा देता है।

प्राणायाम

तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः॥४९॥

आसन की स्थिति में, श्वास के प्राकृतिक प्रवाह को अवरोधित कर जागरूकतापूर्वक गिनती के साथ लम्बी, गहरी और सूक्ष्मतर श्वास लेते हुए अपना ध्यान अलग अलग हिस्सों पर लेकर जाना प्राणयाम है। प्राणायाम में श्वास के प्राकृतिक प्रवाह को अवरोधित करते हैं क्योंकि तुम्हारा प्राकृतिक प्रवाह बिलकुल भी प्राकृतिक नहीं रह गया होता है। हमने अपने स्वभाव में न रहकर अपनी श्वास को इतना अप्राकृतिक बना लिया है कि उसको  प्राकृतिक लय में लेकर आने के लिए, गति-विच्छेद, जागरूकता पूर्वक उसके प्रवाह को विशेष गिनती से जगह जगह पर अवरोधित करते हैं।

वाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिः देशकालसङ्ख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः॥५०॥

इस एक सूत्र में ही सभी तरह के प्राणायामों को एक साथ वर्णित कर दिया गया है। श्वास लें, रोके और छोड़ें फिर रोकें और इस तरह अलग अलग गिनतियों के साथ शरीर के अलग अलग हिस्सों पर अपना ध्यान लेकर जाने की प्रक्रिया ही प्राणायाम है। इस एक ही सूत्र में सब तरह के प्राणायाम समाहित हैं।

वाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः॥५१॥

एक और चौथे तरह का प्राणायाम है जो स्वतः होता है। जब सारे विचारों और धारणाओं से मन मुक्त होता है तब प्राकर्तिक रूप से एक प्राणायाम शुरू होता है। इससे मन की सभी अशुद्धियाँ मिट जाती हैं। यह चौथी तरह का प्राणायाम है जो बिना प्रयास के होता है और जैसे जैसे गहराई आती है वैसे वैसे यह अपना एक निश्चित प्रवाह बना लेता है।

प्राणायाम को स्वयं से नहीं, बल्कि उचित देखरेख और निर्देशन में ही सीखना चाहिए। अब प्राणायाम करने का प्रभाव क्या होता है?

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्॥५२॥

प्राणायाम से तुम्हारे प्रकाश स्वरूप पर पड़ा हुआ आवरण क्षीण होने लगता है। तुम ज्योति स्वरुप हो, प्रकाश हो पर तुम्हें इसका भान ही नहीं होता क्योंकि उसके चारों ओर एक गाढ़ा आवरण पड़ा हुआ है। प्राणायाम से यह आवरण क्षीण होते होते पारदर्शी होने लगता है और तुम यह जान पाते हो की तुम्हारा स्वरुप क्या है? तुम प्रकाश स्वरुप हो।

धारणासु  योग्यता मनसः॥५३॥

प्राणायाम का दूसरा लाभ यह है कि इसके अभ्यास से मन में शरीर के किसी एक बिंदु पर ठहरने की क्षमता आने लगती है। मन किसी एक वस्तु पर टिकने में सक्षम होने लगता है। यह एक तरह की संकल्प शक्ति है, प्राणायाम के बिना मन किसी संकल्प से बंधता ही नहीं, मन हमेशा ऐसे ही बिखरा बिखरा चलता आया है। परन्तु प्राणायाम से मन में एक स्पष्टता आती है और वह एक दिशा में गतिमान होने में सक्षम होने लगता है।

तुम कभी अच्छे से प्राणायाम कर के उठते हो तो पाते ही हो कि मन कहीं अधिक ठहरा हुआ, शांत और जागरूक होता है। उस अवस्था में तुम शरीर के प्रति जागरूक रहते हो और ध्यान में भी आसानी से उतर सकते हो।

प्रत्याहार

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः॥५४॥

प्रायः मन बाहरी विषय वस्तुओं में रमा रहता है परन्तु जब तुम ध्यान के दौरान मन को बाहरी वातावरण से समेट कर भीतर किसी वस्तु में अटका देते हो उसे ही प्रत्याहार कहते हैं। इसे मन के लिए एक वैकल्पिक आहार भी कह सकते हैं। एक ऐसा विकल्प जिस से मन भीतर की ओर आने लगे। जैसे जब तुम ध्यान के उपरांत नाचते हो तो वह नृत्य एक प्रत्याहार ही है। मन को अंतर्मुखी करने के लिए, भीतर की यात्रा के लिए जो वैकल्पिक आहार है उसे ही प्रत्याहार कहते हैं। प्रत्याहार ही मन, शरीर और इन्द्रियों को इकठ्ठा कर उन्हें सम्पूर्ण और एकरूप कर देता है। तुम्हें एक गहरे ध्यान के बाद यह अनुभव भी होता है कि तुम पूर्ण हो और एकरूप हो। जीसस ने भी कहा कि मैं मनुष्यों को पूर्ण बनाने आया हूँ।

मेरा उद्देश्य केवल क्रिया और सत्संग करवाने का नहीं बल्कि तुम्हें पूर्ण व्यक्तित्त्व बनाने का है, तुम्हारी ऊर्जा संगठित होकर एकरूप हो जाए। इससे तुम्हारी इन्द्रियाँ तुम्हारी सुनने लगती हैं, तुम उनके द्वारा शासित नहीं होते हो।

तुम्हारे भीतर एक उत्साह, प्रेम और ऊर्जा का उत्थान बना रहता है, यह प्रत्याहार का प्रभाव है।

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