कॣेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः

महर्षि पतंजलि कहते हैं कि ईश्वरीय चेतना पाँच तरह के क्लेशों- अविधा, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश से मुक्त होती है। इसी तरह ईश्वर कर्मों से भी मुक्त है। कर्म चार प्रकार के होते हैं।

चार प्रकार के कर्म

सत्कर्म, जिनसे तुम्हें पुण्य मिलता है। तुम जब किसी के लिए कुछ अच्छा करते हो और वो तुम्हे हृदय से धन्यवाद करते हैं तब तुम्हे उसका पुण्य मिलता है। यही सत्कर्म हैं।

दूसरे तरह के ऐसे कर्म जिनसे तुम्हें पाप मिलता है। तुम किसी के साथ कुछ करते हो, उन्हें दुःख, घुटन और परेशानी होती है तब तुम पाप के भागी होते हो।

श्रित फल वाले कर्म मिश्रित फल देते हैं। ऐसे कुछ कर्म जिनका फल पाप और पुण्य, दोनों का मिश्रण होता है।

ऐसे कर्म, जो तटस्थ परिणाम देते हैं, जो पाप और पुण्य, दोनों ही नहीं देते हैं। जैसे तुम सुबह सैर करने जाओ, उससे न पाप है न पुण्य। वह कर्म मात्र है। तुम किसी कमरे की सफाई कर रहे हो, इसका भी कोई पाप पुण्य नहीं है। परन्तु यही कर्म तुम यदि किसी की सहायता के लिए करो तब उससे पुण्य प्राप्त होता है।

तुम्हारे अस्तित्त्व का मूल, इन सभी कर्मों से मुक्त है। उसका कोई कर्म नहीं है। ईश्वर से जो भी आता है, उससे कोई भी कर्म नहीं जुड़ता है। ईश्वर के लिए कुछ भी अच्छा, बुरा, सही, गलत कुछ भी नहीं होता है।

ईश्वरीय चेतना कर्म फलों से भी मुक्त है।

किसी कर्म के फल, आनंद अथवा दुःख में परिणति को विपाक कहते हैं, ईश्वर इस से भी परे है। विपाक भी तुम्हारे अस्तित्त्व की गहरी, उत्कृष्ट और शुद्ध चेतना को नहीं छूता है, वही चेतना ईश्वर है।

आशय अर्थात अव्यक्त इच्छाएँ, छाप, भाव और बीज, ईश्वरीय चेतना इन से भी मुक्त है।

ईश्वर हर प्राणी के भीतर है।

जब चेतना क्लेशों, कर्मों, विपाक अर्थात कर्मफलों और आशय, कर्म की छापों से मुक्त होती है तब वह विशेष चैतन्य की अवस्था ईश्वर है। और यह विशेष पुरुष ईश्वर कहाँ है? दूर कहीं आसमान में नहीं, बल्कि तुम्हारे भीतर हृदय में ही ईश्वर स्थित है। ईश्वर हर एक प्राणी के भीतर है।

जो भी कर्म तुम करते हो, जो भी घटनाएँ तुम्हारे चारों ओर होती हैं वह तुम्हारे मूल में एक केंद्रीय स्थान की चेतना को नहीं छूती हैं, वह चेतना अछूती और शुद्ध है। जीसस का जन्म एक अनछुई कुमारी माँ के गर्भ से हुआ इसका अर्थ भी यही है कि ईश्वर का जन्म तुम्हारे भीतर जो पवित्र चेतना है जिसे कुछ भी कर्म और घटनाएँ नहीं छूती है, वहाँ से हुआ है।

ऐसा विशेष पुरुष, चैतन्य ही ईश्वर है।

पूजा-आराधना वास्तव में क्या है?

ईश्वरीय पूजा का अर्थ है जब तुम्हारा बाह्य मन भीतरी अस्तित्त्व की आराधना करता है, सारी आराधनाएँ मन से भीतर के अस्तित्त्व की ओर होती है। यह ऐसे ही है जैसे कोई वृत्त की परिधि उसके केंद्र में जा मिले। एक परिधि, एक सीमा जब केंद्र में जा मिलती है तब वह अनंत हो जाती है, असीमित हो जाती है।

जब मन स्वयं के अनंत अस्तित्त्व स्वरुप को नमन करता है, वही प्रार्थना है। इसे तुम कुछ भी नाम दे सकते हो, मेरे भगवन, मेरे ईश्वर – तुम किसी को भी, कहीं भी, कैसी भी प्रार्थना करते हो, वह प्रार्थना मुझे और मुझ तक ही पहुँचती है। कृष्ण कहते हैं, तुम किसी की भी प्रार्थना करो, सब मुझ तक ही आना है क्योंकि मैं ही अस्तित्व का केंद्र हूँ।

तुम किसी की कहीं भी आराधना करो, वह मन को घुलाने का कार्य मात्र है। जैसे एक मीठी गोली पानी में घुल जाती है, वह जैसे भी पानी में जाए इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता, उसे तो पानी में घुलना ही होता है। पूजा भी इसी तरह अपने मन को अस्तित्त्व के साथ एकाकार करने का कार्य है।

ईश्वर, गुरु और आत्मा एक ही है

जब तुम उस चेतना पर ध्यान करते हो जो क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से मुक्त है, उसी क्षण मन घुलने लग जाता है। इसलिए ईश्वर, गुरु और स्वयं में कोई अंतर नहीं है, कहते हैं – ईश्वरो गुरु आत्मेति मूर्ति भेद विभागिने।

मात्र शब्द ही अलग है। गुरु और कुछ नहीं बल्कि तुम्हारे अस्तित्त्व के गहरे में जो चैतन्य है, वही गुरु है, वही ईश्वर है जिनका समूचे ब्रह्माण्ड पर आधिपत्य है।

आगे महर्षि पतंजलि कहते हैं कि ऐसी ईश्वरीय चेतना सर्वज्ञ है, सब कुछ जानती है। जब कृष्ण सब जानते थे तब क्यों न अर्जुन को बता ही देते की तुम युद्ध जीतने वाले हो? यह कैसे संभव हैं?

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