छठ पूजा एक प्राचीन महोत्सव है जिसे दिवाली के बाद छठे दिन मनाया जाता है। छठ पूजा को बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत देश के विभिन्न महानगरों में मनाया जाता है। वैसे तो लोग उगते हुए सूर्य को प्रणाम करते हैं, लेकिन छठ पूजा एक ऐसा अनोखा पर्व है जिसकी शुरुआत डूबते हुए सूर्य की आराधना से होती है। शब्द “छठ” संस्कृत शब्द “षष्ठी” से आता है, जिसका अर्थ “छः” है, इसलिए यह त्यौहार चंद्रमा के आरोही चरण के छठे दिन, कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है। कार्तिक महीने की चतुर्थी से शुरू होकर सप्तमी तक मनाया जाने वाला ये त्यौहार चार दिनों तक चलता है। मुख्य पूजा कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के छठे दिन की जाती है।

गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी की पावन उपस्थिति में आर्ट ऑफ लिविंग अंतर्राष्ट्रीय केंद्र, बेंगलुरु में छठ पूजा का आयोजन बृहत पैमाने पर किया जा रहा है। बेंगलुरु नगर में रहने वाले आप सभी श्रद्धालुगण इस पावन अवसर पर यहां सादर आमंत्रित हैं।

विशेष जानकारी के लिए समपर्क करें: बिनय कुमार – 7204236309

छठ पूजा का महत्त्व

घर-परिवार की सुख समृद्धि और आरोग्यता के लिए छठ पूजा का व्रत किया जाता है। इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति-पत्नी, पुत्र, पौत्र सहित सभी परिजनों के स्वास्थ्य की मंगल कामना करना है। छठ का अभ्यास मानसिक शांति भी प्रदान करता है। छठ के दौरान हवा का नियमित प्राणिक प्रवाह गुस्सा, ईर्ष्या और अन्य नकारात्मक भावनाओं को कम करने में मदद करता है।

हमारे देश में सूर्य उपासना के कई प्रसिद्ध लोकपर्व हैं जो अलग अलग प्रांतों में विभिन्न रीति-रिवाजों के साथ मनाए जाते हैं। मॉरिशस, त्रिनिदाद, सुमात्रा, जावा समेत कई अन्य विदेशी द्वीपों में भी भारतीय मूल के निवासी छठ पर्व को बड़ी आस्था और धूमधाम से मनाते हैं।

यह उत्सव सूर्य के प्रति कृतज्ञता दर्शाने का दिन है। सूर्य हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। हमारे अस्तित्व का आधार ही सूर्य है। इसमें सूरज को अर्घ्य देना, अर्थात् सूरज को देखना, आवश्यक है और यह केवल सुबह या शाम के वक्त किया जा सकता है। अब प्रश्न उठता है, कब तक सूरज को देखने की आवश्यकता है? आप अपने हाथों में पानी धारण करते हैं और पानी धीरे धीरे उंगलियों से निकल जाता है, तब तक ही सूर्य को देखा जाता है। सूरज को देछठ पूजा का इतिहास | छठ पूजा की कहानीखने से आपके शरीर को ऊर्जा प्रदान होती है। इसलिए, पूजा मुख्य रूप से सूर्य के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए की जाती है।

– गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर

छठ पूजा का इतिहास | छठ पूजा की कहानी

यह माना जाता है कि छठ पूजा का उत्सव प्राचीन वेदों में स्पष्ट रुप से बताया गया है, क्योंकि पूजा के दौरान किए गए अनुष्ठान ऋग्वेद में वर्णित अनुष्ठानों के समान हैं, जिसमें सूर्य की पूजा की जाती है। उस समय, ऋषियों को सूर्य की पूजा करने के लिए भी जाना जाता था और बिना पथ्य का सेवन करे हुए भी वे अपनी ऊर्जा सीधे सूर्य से प्राप्त करते थे।

Chhath Puja offering

ऐसा कहा जाता है कि महाभारत काल में महान ऋषि धौम्य की सलाह के बाद, द्रौपदी ने पांडवों को कठिनाई से मुक्ति दिलाने के लिए छठ पूजा का सहारा लिया था। इस अनुष्ठान के माध्यम से, वह केवल तत्काल समस्याओं को हल करने में सक्षम रही ऐसा नहीं है बल्कि बाद में, पांडवों ने हस्तिनापुर (वर्तमान समय में दिल्ली) को अपने राज्य के रूप में पुनः प्राप्त किया था। ऐसा कहा जाता है कि कर्ण, सूर्य के पुत्र, जो कुरुक्षेत्र के महान युद्ध में पांडवों से लड़े थे, ने भी छठ का अनुष्ठान किया था। पूजा का एक अन्य महत्व भगवान राम की कहानी से भी जुड़ा हुआ। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, श्री राम और सीता माता ने उपवास किया था और 14 साल के निर्वासन के बाद शुक्ल पक्ष में कार्तिक के महीने में सूर्य देव की अर्चना की थी। तब से, छठ पूजा एक महत्वपूर्ण और पारंपरिक हिंदू उत्सव बन गया, जिसे हर साल उत्साह से मनाया जाता है।

लोगों में प्रचलित विश्वास यह भी है कि सूर्य भगवान की पूजा कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों को भी समाप्त करती है और परिवार को  दीर्घायु और समृद्धि सुनिश्चित करती है। यह पूजा दृढ़ अनुशासन, शुद्धता और उच्चतम सम्मान के साथ की जाती है। जब एक परिवार छठ पूजा शुरू कर देता है, तो यह उसका कर्तव्य हो जाता है कि वह इस परंपरा का पीढ़ियों तक पालन करे।

छठ पूजा उत्सव

प्रथम दिन

छठ पूजा का पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र बना दिया जाता है। इसके पश्चात् छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन को ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोंपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू, चने की दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। इस दिन, भक्त कोशी, करनाली और गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं और प्रसाद तैयार करने के लिए इन नदियों का पवित्र जल घर लेकर जाते हैं।

दूसरा दिन

दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं, इसे ‘खरना’ कहा जाता है। ‘खरना’ का प्रसाद लेने के लिए आसपास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में मिट्टी के चूल्हे पर गुड एवं चावल की खीर और रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। पूजा के दौरान किसी भी बर्तन का उपयोग नहीं किया जाता है। पूजा करने के लिए केले के पत्तों का प्रयोग करते हैं। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। भोजन लेने के बाद, व्रती 36 घंटे बिना पानी के उपवास करती हैं।

तीसरा दिन

तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन में मिट्टी के चूल्हे पर छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहतें हैं। ठेकुआ के अलावा चावल के लड्डू बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया लौंग, बड़ी इलायची, पान-सुपारी, अग्रपात, गरी-छुहारे, चने, मिठाईयाँ, कच्ची हल्दी, अदरख, केला, नींबू, सिंघाड़ा, सुथनी, मूली एवं नारियल, सिंदूर और कई प्रकार के फल छठ के प्रसाद के रूप में होते हैं। शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती महिला के साथ परिवार और पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठ व्रती एक पवित्र नदी या तालाब के किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से स्त्रियां छठ के गीत गाती हैं। इसके बाद अर्घ्य दान सम्पन्न करती हैं। सूर्य को जल का अर्घ्य दिया जाता है और छठी मईया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है। सूर्यास्त के बाद सारा सामान लेकर सोहर गाते हुए सभी लोग घर आ जाते हैं और अपने घर के आंगन में एक और पूजा की प्रक्रिया प्रारंभ करते हैं, जिसे कोशी कहते हैं। यह पूजा किसी मनोकामना के पूर्ण हो जाने पर या घर में कोई शुभ कार्य होने पर की जाती है। इसमें सात गन्ने, नए कपड़े से बाँधकर एक छत्र बनाया जाता है जिसमें मिट्टी का कलश या हाथी रखकर उसमें दीप जलाया जाता है और उसके चारों तरफ प्रसाद रखे जाते हैं। सभी स्त्रियां एकजुट होकर कोशी के गीत गाती हैं और छठी मईया का धन्यवाद करती हैं।

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चौथा दिन

चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता हैं। व्रती उसी जगह पुन: इकट्ठा होती हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। कोशी की प्रक्रिया यहाँ भी की जाती है। इसके बाद पुन: पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृति होती है। इसके बाद व्रती कच्चे दूध से उगते सूर्य को अर्घ्य देते हैं। अंत में व्रती अदरक, गुड़ और थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत को पूर्ण करती हैं।

मुख्य उत्सव छठ के तीसरे दिन मनाया जाता है, जब सूर्य देव की आराधना सूर्य नमस्कार और फल से की जाती है।

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