क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनतासमापत्तिः॥

जब मन की पाँचों वृत्तियों की गतिविधि तुम्हारे अधीन हों, तब समाधि संभव है।

जब मन की यह पाँच वृत्तियाँ क्षीण होने लगती हैं और तुम्हारे अधीन होने लगती हैं, तब चेतना जो संभालती है, किसे संभालती है? विषय वस्तुओं को। किसके द्वारा संभालती है? इन्द्रियों के माध्यम से। जब यह तीनों ही सामंजस्य में हो, तब तुम समाधि में होते हो। पहला वो, जो देख रहा है, कौन देख रहा है? आत्मा या मन, और इन्द्रियाँ (आंखें) जिनके माध्यम से तुम दृश्य को देखते हो और दृश्य, जब यह तीनो सामंजस्य में हों। इसी तरह कान, जिनसे तुम आवाज को सुनते हो, तब आत्मा, कान और आवाज का स्त्रोत, यह तीनों जुड़े हुए हो, तारतम्य हो, तब वह समाधि है। 

यह कब हो सकता है, जब मन अपनी ही किसी भूतकाल की स्मृति से क्रोध, पछतावा, विकल्प सी आशा, भय, प्रमाण, निद्रा, विपर्यय में न उलझा पड़ा हुआ हो। जैसे जब तुम एक पहाड़ को भी देखते हो, तब तुम केवल देख ही नहीं रहे होते हो, तुरंत ही मन कहता है, अरे, यह कितना सुन्दर है। मन उतने पर भी नहीं रुकता, अरे, यह तो बद्रीनाथ जैसा है, हिमालय जैसा है। तुरंत ही कुछ न कुछ तुम उससे जोड़ देते हो।  इसमें तुम उसको जैसा है वैसा न देखकर, स्मृति के पटल से देखने लगते हो, तुलना करने लगते हो, तब वह समाधि नहीं है। 

एक बड़ी पुरानी कथा है। किसी राजा ने एक बगीचे के बारे में सुना की थार के रेगिस्तान के बीचों बीच एक बड़ा सुन्दर सूर्यमुखी फूलों का बगीचा है। राजस्थान के थार रेगिस्तान में एक व्यक्ति ने अपनी मेहनत और खून पसीने के बलबूते पर एक बड़ा सुन्दर सूरजमुखी का बगीचा तैयार किया है। राजा ने उस बगीचे को जाकर देखने का निर्णय किया। जब वह वहाँ गया, तब उसने देखा की वहाँ पर केवल एक ही फूल है। उस माली ने सभी फूल हटा दिए थे और केवल एक ही फूल को छोड़ दिया। राजा ने कहा कि मैंने तो तुम्हारे बगीचे के बारे में इतना कुछ सुना था, यह क्या है? माली उस एक फूल की तरफ इशारा कर के बोले कि यहाँ एक फूल आपके देखने के लिए है तो सही, जब बहुत सारे फूल होंगे तो आप तुलना करने लगेंगे। आप एक ही फूल को पूरी तरह से देख पाएँ, इसलिए मैंने बाकी सभी फूलों को हटा दिया। 

आपका मन यही गिनता रहेगा कि अरे यह फूल बड़ा है, वह फूल बड़ा है। यह फूल अधिक खिला हुआ है, दूसरा कम है। अब तो आपके पास कोई विकल्प ही नहीं है, आपको केवल एक ही फूल को निहारना है। 

र्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु, ग्रहीत अर्थात वह जो ग्रहण करता है, क्या ग्रहण करता है, मन। किसका ग्रहण करता है, दृश्यों को, आवाजों को, स्मृतियों को, इन सबको ग्रहण करता है। ग्राह्येषु, जिसके माध्यम से ग्रहण करता है, वह इन्द्रियाँ – जब यह तीनों ही सामंजस्य में हो, तारतम्य हो, तब वह समापत्ति है। 

तत्स्थतदञ्ज,

तुम इन्द्रियों की गतिविधियों में संलग्न भी होते हो, फिर भी कोई ज्वरता, बेचैनी नहीं रहती है, उनमें स्थायित्त्व बना रहता है। तुम भोजन कर रहे होते हो, हर एक कौर तुम्हारे मुँह से कृतज्ञता के भाव से उतरता है। वरना, ज्यादातर हम धड़ाधड़ पेट में भोजन भरे चले जाते हैं, जितने ज्यादा हम परेशान, चिंतित और अस्थिर होते हैं, हम उतना ही जल्दी जल्दी भोजन करना चाहते हैं – वह कोई समाधि नहीं है।यदि हम अच्छे से खाना चबाकर खाएँ तो हमारा साठ प्रतिशत भोजन मुँह में ही, लार के साथ पच जाता है। किसी भी इन्द्रियों की गतिविधि में होते हुए भी स्थिरता को बनाए रखो।

तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः 

इसके बाद महर्षि पतंजलि इन्द्रियों के जटिल और सूक्ष्म रूपांतरणों की व्याख्या करते हैं। जब तुम कोई भी अनुभव करते हो तब मन भी उस अनुभव के लिए ज्ञान को प्रतिपादित करता है, ओह, यह ऐसा है। यह सेब है, जिसे मैं खा रहा हूँ। यह फलां फलां है। यह सब बड़े सूक्ष्म स्तर पर चलता है। भूतकाल और वर्तमान के प्रति भी जागरूकता भी ऐसे ही है, कुछ विचार चलते रहते है परन्तु वह उस समाधि के सामंजस्य को बिगाड़ते नहीं है। 

कुछ इस तरह के विचार होते हैं, जो तुम्हें विचलित कर देते हैं, तुम्हारा स्थायित्व उखाड़ फेंकते हैं। कुछ इस तरह के भी विचार होते हैं जो तुम्हें पुनः स्वयं के शांत स्वभाव में स्थापित होने में सहायक होते हैं। पतंजलि इसे सवितर्क समाधि कहते हैं, जिसमें कहीं कहीं भीतर वाद विचार भी चलते रहते हैं  और समाधि की अवस्था बनी रहती है।

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का

समाधि का एक और प्रकार है, जिसमें तुम्हें कुछ भी पता नहीं रहता बस यह पता रहता है कि तुम हो। यह आँखें बंद करने के बाद की ध्यानस्थ अवस्था है। तुम आँखें बंद कर के ध्यान में बैठो और तुम्हें बस यह पता रहे की तुम हो, तुम्हें यह सब, तुम कौन हो, कहाँ हो, इसकी स्मृति भी न रहे।  इस अवस्था में तुम्हें बस अपने होने का आभास भर रहता है, अपने होने के ऐसे भाव के अतिरिक्त कुछ और रहता ही नहीं, इसे निर्वितर्क समाधि कहते हैं। 

तयैव सविचारा निर्विचारा  सूक्ष्मविषय व्याख्याता ॥४४॥

सूक्ष्मविषयत्वमं चालिङ्गपर्यवसानम् ॥४५॥

ता एव सबीजस्समाधिः ॥४६॥

निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः ॥४७॥

इसके और भी सूक्ष्मतर पहलुओं को वर्णित करते हुए, पतंजलि कहते हैं – जैसे जैसे मन के खाली और निर्विचार होने का अभ्यास करते जाते हैं, वैसे वैसे अध्यात्म का प्रसाद, ईश्वर की कृपा प्राप्त होने लगती है। आत्मिक कृपा अनुभव में आने में लगती है और भीतर से खाली होते होते हम खिलने लगते हैं। 

जैसे-जैसे निर्विचार अवस्था में स्वामित्त्व बढ़ता है वैसे-वैसे जीवन में भीतर की ईश्वरीय चेतना की कृपा, अध्यात्म का प्रसाद प्राप्त होने लगता है।

ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा ॥४८॥

ऐसी जागरूकता एक विशेष प्रकार के ज्ञान को साथ लाती है। ऋतंभरा – अंतर्ज्ञान, ऐसा ज्ञान जो दोषरहित है, समय के परे है, जो स्थायी है, उदार है और सत्य से भरा हुआ है। ऐसी प्रज्ञा से चेतना की सच्ची अवस्था का ज्ञान उपजता है।

श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ॥४९॥

आत्मिक ज्ञान वह विशेष ज्ञान है जो भीतर की गहराई से उपजता है। वह बुद्धि से समझे हुए, सुने हुए, पढ़े हुए अथवा अनुमानित ज्ञान से भिन्न है। आत्मिक ज्ञान विशेष और अनूठा होता है।

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