तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥५०॥

समाधि के प्रसाद स्वरुप प्राप्त आत्मिक ज्ञान का संस्कार, इस ज्ञान की छाप, बाकी सभी पुरानी छापों को, जो अनावश्यक हैं, उनको मिटा सकती है।

जितना तुम ध्यान की गहराई में जाते हो, उतना ही तुम्हारे पुराने छाप मिटते चले जाते हैं।

तुम सभी को यह कुछ न कुछ दर, पाँच दस, पचास प्रतिशत से होता ही रहता है। जब तुम जीवन में पहली बार ध्यान करने बैठते हो, तब भी ध्यान कुछ पुरानी छापों को मिटा देता है। कई लोगों को कुछ वर्षों बाद लगता है कि अरे, वह तो पूरी तरह से बदल गए हैं। यह आत्मिक ज्ञान पुराने संस्कारों को मिटाकर तुम्हें पुनः नया कर देता हैं।

कई बार जब तुम भूतकाल को याद करते हो तब तुम्हें लगता है कि अरे, वह काम मैं कैसे कर सकता था, यह तो मैंने नहीं किया है। जो भी तुमने पंद्रह बीस साल पहले किया था, उसे सोचकर तुम्हें ही अचम्भा होता है, अरे, मैंने यह किया था, मैं वह व्यक्ति नहीं हूँ। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ज्ञान के इस संस्कार से तुम्हारे पुराने वह संस्कार मिट जाते हैं। तुम प्रतिदिन नित नूतन होते जाते हो। यदि कोई तुम्हें किसी पुरानी घटना के लिए दोषी भी ठहराता हो तो तुम उन पर अब मुस्कुरा सकते हो। तुम ऐसे देख सकते हो कि वह कोई और ही व्यक्ति था, जिसने ऐसा किया।

 तुमने बुद्ध के जीवन से यह एक कथा सुनी होगी। 

बुद्ध एक प्रवचन सभा को संबोधित कर रहे थे और एक बड़े क्रोधित व्यक्ति ने उनके यहाँ प्रवेश किया। उसे लगता था कि बुद्ध बहुत गलत कर रहे हैं, सब लोग अपना राज पाट छोड़कर बुद्ध के पास खिंचे चले आते हैं और ध्यान में बैठे रहते हैं। इस व्यक्ति के युवा बच्चे भी इसी ध्यान साधना में लगे हुए थे। इस व्यक्ति को लगता था कि मेरे बच्चे यदि व्यापार करते, कुछ मुनाफा कमाते, न जाने किसके चक्कर में पड़े हैं। ऐसे आँख बंद करके वशीभूत बैठ के क्या करते हैं। इसी क्रोध में वह बुद्ध को सबक सिखाने आये।

जैसे ही वे बुद्ध के निकट गए, वे स्तब्ध हो गए, कोई शब्द उनके मुख से बाहर ही नहीं निकल पाया। कोई विचार उठता ही नहीं था। फिर भी क्रोध के भाव में आकर उन्होंने बुद्ध के चेहरे पर थूक दिया। बुद्ध मुस्कुराते रहे परन्तु उनके इतने सारे शिष्य क्रोधित हो गए। बुद्ध की उपस्थिति  में उनकी कुछ भी कर पाने की हिम्मत नहीं थी। शिष्यों ने अपने आप को संभाला और वह व्यक्ति अधिक देर तक वहाँ खड़ा न रह सका और भाग कर वहाँ से बाहर निकल गया। 

जब बुद्ध ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, केवल मुस्कुराते रहे, यह देखकर इस व्यक्ति की रातों की नींद उड़ गई। वह पहली बार किसी ऐसे व्यक्ति से मिला था जो उसके चेहरे पर थूक देने पर भी क्रोधित न हुआ हो। उसका पूरा शरीर बड़ा विचलित था। वह अगले दिन बुद्ध के पास गया और क्षमा माँगी, उसने कहा कि मुझसे अनजाने में भूल हुई।

बुद्ध बोले की मैं तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता।  यह देखकर शिष्य चकरा गए, बुद्ध, जो हमेशा से क्षमा का पाठ पढ़ाते आये हैं, वे ऐसा कैसे कर सकते हैं। तब बुद्ध बोले, जब तुमने कुछ किया ही नहीं, तो मैं तुम्हें कैसे क्षमा करूँ।  जिस व्यक्ति पर तुमने थूका था, वह आज यहाँ नहीं है। यदि वह व्यक्ति मुझे कहीं मिलेंगे तो मैं उनसे तुम्हें क्षमा करने को प्रार्थना करूँगा।

जो व्यक्ति अभी इस समय तुम्हारे सामने है, उसके लिए तुम एक सज्जन व्यक्ति हो। यह करुणा है।

करुणा का अर्थ यह नहीं कि तुम किसी को पहले अपराधी घोषित कर के फिर उन्हें क्षमा करो। तुम्हारी क्षमा ऐसी होनी चाहिए कि सामने वाले को पता भी न लगे कि उन्हें क्षमा किया गया है। उन्हें अपनी गलती का ग्लानि भाव भी न हो, तब वह सही तरह की क्षमा है। यदि तुमने किसी को उनकी गलती के लिए दोषी ठहरा दिया तो तुमने उन्हें क्षमा नहीं किया। ग्लानि का भाव ही बड़ा दंड है।

ग्लानि तुम्हें भीतर से कचोटने के लिए काफी है। ग्लानि तुम्हें निगल लेती है। ज्ञान तुम्हें ग्लानि से बाहर लाता है और एक ऐसे अवस्था में ले आता है जहाँ तुम संसार को बिलकुल देखते ही नहीं हो, संसार अर्थात मन की छोटी छोटी बकर में तुम नहीं पड़ते हो। यह सब तुम्हें तुच्छ जान पड़ता है। 

तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः ॥५१॥

यह एक अलग तरह की समाधि है जिसमें पूर्व के संस्कारों के होने का आभास भी नहीं रहता है। कई तरह की समाधियों की व्याख्या की जा सकती है, इसका कोई अंत नहीं है। यह पथ लम्बा है, परन्तु हर कदम अपने में पूर्ण है। यहाँ ऐसा नहीं है कि तुम कुछ समय के उपरान्त किसी लक्ष्य पर पहुंचोगे, वरना लक्ष्य तो हर क्षण में है। यह पथ बहुत लम्बा है पर हर एक कदम पर लक्ष्य ही है।

लक्ष्य वहीं है, जहाँ तुम हो। ऐसे में जल्दबाजी नहीं कि आज ही मैं समाधि का अनुभव कर के रहूँगा, धैर्य रखो। उत्साह के साथ साथ धैर्य भी बना कर रखो। यह बहुत रोचक है, जिन लोगों में बहुत उत्साह होता है वे धैर्यवान नहीं होते हैं और जो बहुत धैर्यवान होते हैं वे आलस में पड़े रहते हैं। आलस में तुम समाधि के लिए किसी और जन्म की प्रतीक्षा करते हो और अधिक उत्साह में बैचैन हो उठते हो। ऐसा तुम हर जगह देखोगे, या तो लोग अत्यंत उत्साही होते हैं या फिर लोग अत्यंत धैर्यवान।

तुम ऐसे नहीं कहते कि मुझे बड़ी जल्दी है, मुझे तुरंत सोना है। तुम सो सकते हो पर तुम तुरंत से नहीं सो सकते। तुम कभी तुरंत से सोने की कोशिश करो, जैसे मुझे तुरंत से पाँच मिनट सोना है, यह संभव नहीं है।  इसी तरह तुम जल्दी से कुछ याद भी नहीं कर सकते हो। जैसे तुम चाहो, अरे जल्दी से याद आ जाएं, जल्दी, जल्दी, जल्दी – ऐसे याद करने में जल्दी करने से याद आने में विलम्ब ही होता है।  जब भी तुम कुछ याद करना चाहते हो, तब जितना तुम बैचेन और जल्दीबाजी में होते हो, उतना ही याद करने में अधिक समय लग जाता है।

यही नींद और ध्यान के साथ भी है। तुम जल्दी जल्दी ध्यान नहीं कर सकते हो। ऐसा संभव नहीं कि तुम यह कहो, मेरे पास समय नहीं है मैं जल्दी से ध्यान करूँगा।  यह एक सुनहरा मध्यम पथ है जिसमें तुम उत्साही हो, तुम जल्दी में हो, परन्तु तुम धैर्यवान भी हो। तुम धैर्यवान हो परन्तु आलसी नहीं हो।

कई बार लोग अपने आध्यात्मिक विकास के लिए कुछ क्रिया करनी हो तो कहते हैं कि भगवान की इच्छा होगी तो हो ही जाएगा, भगवान बुलाएँगे तो जाएँगे। जहाँ अध्यात्म, ध्यान और अभ्यास की बात होती है, हम भगवान पर छोड़ देते हैं। परन्तु दुनिया में यदि तुम्हें कुछ करना हो, कोई घर बनाना हो, तब तुम यह नहीं कहते। हम ऐसे भी नहीं करते कि यदि ईश्वर की इच्छा होगी तो मेरी नौकरी लग जाएगी। हम घर बनाने में, नौकरी ढूंढ़ने में, पैसे कमाने में सौ प्रतिशत प्रयास करते हैं। हमें ऐसा नहीं करना है, धैर्यवान बनो पर टालमटोल न करो, अध्यात्म के लिए उत्साही रहो। 

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