तुम्हें जन्म से लेकर जीवन में जो भी सुख मिला है, यदि तुम उनको परखोगे तो यह पाओगे कि प्रत्येक सुख के लिए तुम्हें कुछ न कुछ शुल्क चुकाना पड़ा है। यह शुल्क जो तुम चुकाते हो, वही शुल्क दुःख है। महृषि पतंजलि कहते हैं,

परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः॥१५॥

हर एक घटना कुछ न कुछ दुःख ही देती है। चाहे कितनी भी सुखदायक घटना क्यों न हो अंततः वह समाप्त होती ही है। ऐसे सुख और आनंददायक घटना की समाप्ति भी भीतर से एक चुभन पैदा करती है, दुःख देती है। जितना अधिक सुख होता है उतना ही अधिक दुःख भी होता है।

परिणाम दुःखै, अर्थात एक घटना की परिणति दुःख ही देती है। ताप दुःखै, किसी सुखकारी घटना के लिए लालसापूर्वक प्रतीक्षा करना भी दुःख ही है। संस्कार दुःखै, ऐसी सुखकारी घटनाओं की याद अथवा छाप भी दुःख ही देती है। सुख की याद से भी दुःख ही आता है। इससे पहले कि तुम कुछ चाहते हो, यह पाने की ज्वरता और उतावलापन  भी दुःख ही देती है, और जब तुम वह कुछ पा लेते हो तो उसको खो देने का भय दुखदायी होता है। यदि तुम खो भी देते हो तो उसके पहले होने की याद तुम्हें दुखी कर देती है।

एक विवेकी और बुद्धिमान व्यक्ति जो ज्ञान में जागृत है, वह इस सबको दुःख जैसे ही देखते हैं। ऐसा कुछ है ही नहीं जो कष्टदायक ना हो; “सर्वम् एव दुख मयं”। सब कष्टकर ही है। तुम कहोगे प्रेम खूबसूरत और सुखद है, परंतु प्रेम भी दुखदायी है। तुम कितना एक दूसरे के निकट हो सकते हो? शरीर निकटतम हो सकते हैं परन्तु उससे संतुष्टि नहीं मिलती। प्रेम में एक हो जाने की चाह, शारीरिक निकटता से पूरी नहीं होती। हर कोई प्रेम में दूसरे व्यक्ति के साथ विलय हो जाना चाहता है जो शरीर में संभव नहीं है। इससे हताशा ही हाथ लगती है।

अधिकतर पुरुष अगले जन्म में महिला का शरीर लेते हैं और महिला पुरुष का जन्म लेती हैं। यह उत्कट इच्छा और तृष्णा का ही प्रभाव होता है। मन में यह प्रभाव और भी अधिक होता है, इसलिए तुम हर एक पुरुष में महिला और हर एक महिला में पुरुष खोज पाओगे। ऐसा भूतकाल में मन पर पड़ी छापों के कारण होता है।

केवल शरीर के निकट आने से आत्मा को संतुष्टि नहीं मिलती, उसे कुछ और चाहिए होता है, वह तो प्रेम में विलय होकर लुप्त हो जाना चाहती है। प्रेम में दो तरह की बातें होती हैं – पहले में “मैं तुम्हारे भीतर समा जाना चाहता हूँ” और दूसरे में, “मैं तुम्हें खा जाना चाहता हूँ जिससे कि तुम मुझमें समा जाओ।” यही दो बातें प्रायः प्रेमी एक दूसरे को कहते हैं परन्तु उन्हें पता नहीं होता कि वे यह बातें क्यों कह रहे हैं।

“तुम इतने प्यारे हो कि मेरा तुम्हें खा जाने का मन होता है।” प्रेम तुम्हें ऐसी अजीब अवस्था में ले आता है। वास्तव में, यदि यह संभव होता तो कितने सारे लोगों ने तो ऐसा ही किया होता, वे अपने प्रेमी अथवा प्रेमिका को एक छोटा खिलौना बना कर निगल ही लेते। इसके बाद तो कोई चिंता भी नहीं रहती कि वे किसको देख रहे हैं, किससे बातें कर रहे हैं?

तुम्हारा मन हमेशा इसी में लगा रहता है कि सामने वाला प्रेमी व्यक्ति क्या कर रहा है? किसको देख रहा है? किससे बात कर रहा है? थोड़े समय बाद ही प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे के लिए चौकीदार अधिक बन जाते हैं। और तो और, यहाँ शिविर में भी आ कर वे ध्यान के बीच में भी आँखें खोल खोल के देखते हैं – कि उनके प्रेमी या प्रेमिका ध्यान कर रहे हैं कि नहीं? मैंने इतना मनाया था शिविर में आने के लिए, उनका अनुभव तो ठीक हो रहा है न? कितनी बार तो हमें टोकना पड़ता है कि तुम अपनी आँखें बंद रखो और ध्यान में गहरे जाओ, तुम्हारे प्रेमी का ध्यान हम रख लेंगे।

यदि संभव होता तो लोग शायद ऐसा ही करते, अपने प्रेमी या प्रेमिका को निगल ही लेते और अपने भीतर छुपा कर रखते। कहीं तो वास्तव में हृदय में छुपा कर सुरक्षित रखते, जहाँ वे न किसी और को देख सकें, न कुछ तुम्हें बिना बताए कर सकें। 

प्रेम भी बड़ा कष्ट देता है, दुःख देता है। विरह भी बड़ा कष्टकारी होता है, दुःख देता है। एक इच्छा भी मन के भीतर बड़ा भारी दुःख पैदा करती है, और तो और दूसरों को खुश करना भी बड़ा दुःख ही है, बोझ है। फिर यह जानने की इच्छा कि वे खुश हुए की नहीं, यह भी बड़ा कष्टकारी है। तुम दूसरे व्यक्ति के मन को ओर-छोर तक पूरी तरह से जान लेना चाहते हो। तुम अपने मन को ही पूरी तरह से नहीं जानते और दूसरे के मन को जानने की चेष्ठा करते रहते हो। किसी की बातों और व्यवहार से उनके मन को जान लेना असंभव है, जीभ तो कैसे भी दाएं-बाएं हिलती रहती है, उसमें हड्डी नहीं होती, इसका कोई भरोसा नहीं होता। जीभ स्थिर कहाँ होती है, तुम आज कुछ बोलते हो कल को कुछ और ही बोल सकते हो। तुम अपनी जुबान पर भरोसा नहीं कर सकते, चाहे तो तुम संसार में किसी पर भी भरोसा करो। 

इसी तरह किसी और की इच्छा के अनुसार चलना भी बड़ा दुखदाई है। तुम्हें अभी किसी के साथ कुछ अच्छा लगा, कुछ प्रेम महसूस हुआ और अगले क्षण वैसे नहीं होता है तो वह भी दुखदाई बन जाता है। यदि तुम कोई आध्यात्मिक साधना करते हो तो उसमें भी बड़ा यत्न करना पड़ता है, जिसमें दुःख होता है। यदि साधना नहीं करते हो तो कहीं ज्यादा दुःख होता है। “ओह, मैंने ध्यान नहीं किया, मुझे अच्छा नहीं लग रहा” या फिर “अरे, ध्यान कितना अच्छा है पर यह समाप्त होने वाला है, मेरा अच्छे से नहीं हुआ, मुझे और करना था”, ऐसे कुछ न कुछ शिकायत बनी ही रहती है।

सर्वम् एव दुख मयं, यदि तुम एक ज्ञानी की दृष्टि से देखोगे तो पाओगे कि संसार में ऐसा कुछ है ही नहीं जिसमें दुःख न हो। संसार में सब बातों के पीछे दुःख पूँछ जैसे लगा ही है। तुम कुछ भी चुनो, उसके पीछे दुःख मुफ्त आता ही है। अगले सूत्र में पतंजलि कहते हैं, ऐसे में क्या करना चाहिए? जब तुम्हें पता लगता है कि सब कुछ दुःख ही है तो क्या करना चाहिए? इस दुःख निवारण के लिए कुछ न कुछ तो करना चाहिए, वह क्या है?

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