तपसः

जो भी तुम्हारे लिए आसान नहीं है, उससे भी इच्छापूर्वक निकलना ही तपसः है। यह तुम्हें बड़ी मजबूती प्रदान करता है। परन्तु लोग इसे भी खींच खींच कर दिखावे के लिए प्रयोग करने लगते हैं और स्वयं को प्रताड़ित करते हैं।

तपसः भी तीन तरह के होते हैं।

शरीर के लिए तपस, शब्दों के लिए, मन के लिए।

तपसः से क्या होता है? हम क्यों तप से गुजरते हैं?

तप हमारे तंत्र प्रणालियों की शुद्धि कर देता है और उन्हें बल प्रदान करता है। तप का उद्देश्य ही है, शुद्धता और शक्ति। परन्तु तपस से किसी भी व्यक्ति में बड़ा अहंकार उपज सकता है, दुर्भाग्यवश लोग सोचते हैं कि वह बहुत अधिक तपसः कर के कुछ महान काम कर रहे हैं।

यदि किसी को बहुत लम्बे समय तक व्रत रखना पड़ रहा है तो इसका अर्थ है कि उनके भीतर बहुत सारी अशुद्धता रही होगी। तपसः को आवश्यकता से ज्यादा गौरवान्वित करना अहंकार का मार्ग है। मैंने बहुत पूजा पाठ किया है, बहुत ध्यान किया है, इस तरह की सोच हमें अहंकार से भर देती है।

इसीलिए तपसः के तुरंत बाद है, स्वाध्याय, स्वयं का अध्ययन। यह देखना की हम व्रत क्यों कर रहे हैं, केवल दिखावे और किसी से होड़ करने मात्र के लिए?

एक बार की बात है। दो साधक अपने ध्यान साधना में लगे हुए थे। दोनों आस पड़ोस में ही रहते थे। उनके तप से प्रसन्न होकर ईश्वर आए और पूछा, हे वत्स, तुम्हें क्या चाहिए?

ईश्वर ने पहले साधक से पूछा, तब साधक बोले, क्या आप उन दूसरे साधक के यहाँ भी जाएँगे? ईश्वर बोले, “हाँ, तुम दोनों ने एक ही दिन तपस्या शुरू की थी, तुम थोड़ा सा पहले बैठ गए, इसलिए मैं तुम्हारे पास पहले आया, अब बताओ तुम्हें क्या चाहिए?”

साधक ने पूछा, “क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप दूसरे साधक के घर न जाएँ?” ईश्वर बोले, “नहीं। जाना तो होगा, नहीं तो अन्याय हो जाएगा। अभी बताओ, तुम्हें क्या चाहिए? “

साधक तब बोले, “हे ईश्वर, आप जो भी दूसरे साधक को दें, उसका दुगुना मुझे देने की कृपा करें।” फिर ईश्वर दूसरे पडोसी के यहाँ गए और उससे पूछा, “हे वत्स, मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हुआ, बोलो तुम्हें क्या चाहिए?”

वह साधक बोले, “रुकिए भगवन, क्या आप मेरे पडोसी के यहाँ से आ रहे हैं?” ईश्वर ने उत्तर में हामी भरी। तब साधक ने पूछा, “भगवन, आपने उसे क्या वरदान दिया?” ईश्वर चुप थे और साधक यह जानने की जिद्द पर अड़ गया। ईश्वर सकुचाते हुए बोले, “तुम्हारे पडोसी साधक ने जो भी तुम्हें मिले, उसका दुगुना मिलने का वरदान माँगा है।”

यह सुनकर ये साधक बोले, “ओह। उसने यह माँगा है। ठीक है, आप मेरी एक आँख और एक कान ले लीजिए। मुझे उसे सबक सिखाना ही पड़ेगा, वह हमेशा मुझसे प्रतिद्विंदिता रखता है। उसे सब कुछ मुझसे दुगना चाहिए।”

इस प्रकार का तपसः अहंकार को उपजाता है। इसलिए उसी सूत्र में स्वाध्याय वर्णित है।

स्वाध्याय

स्वाध्याय है, अपने किसी भी कार्य के पीछे के उद्देश्य को देखना। अधिकतर हम जो स्वयं चाहते हैं, उन सबके पीछे नहीं होते हैं, बल्कि हम दूसरे लोगों के अनुसार वस्तुओं के पीछे होते हैं। दूसरे लोग इसके बारे में क्या कहेंगे, सोचेंगे, करेंगे, उसके अनुसार हम अपनी प्राथमिकताएँ तय करते हैं।

अधिकतर तुम्हें स्वयं ही नहीं पता होता की तुम्हें क्या चाहिए, क्योंकि तुमने अपने भीतर कभी देखा ही नहीं होता। तुम आते जाते विचारों, इच्छाओं और भावनाओं से बहकते जाते हो। तुम्हारी इच्छाएँ भी तुम्हारी स्वयं की नहीं होती हैं।

तुम कहीं कुछ गलत खा लेते हो, सुन लेते हो, देख लेते हो – ऐसा कुछ भी भोजन, संगति, कुछ देखा-सुना, तुम्हारे भीतर एक इच्छाओं का झंझवात ले आता है और तुम उसी झंझवात को ही अपना स्वरुप समझ बैठते हो। इसलिए अधिकतर इच्छाओं की पूर्ति के उपरांत भी तुम प्रसन्न नहीं होते हो अथवा इच्छाओं की पूर्ति भी तुम्हें कोई लम्बे समय तक रास नहीं आती है। कुछ दिनों में ही वह भ्रम टूट जाता है और फिर तुम आश्चर्य करते हो, मैं इस चक्कर में पड़ा ही क्यों? कभी कभी तो तुम यह भी मानने लगते हो की शायद में वास्तव में यही चाहता था, इसलिए यह सब हो रहा है।

स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं को देखना, परखना। तुमने शरीर को शुद्ध कर लिया परन्तु क्या तुम शरीर मात्र ही हो? तुमने मन को हल्का कर लिया, और क्या तुम मन ही हो? क्या तुम विचार हो? क्या तुम भाव हो? तुम हो क्या?

यह स्वाध्याय तुम्हें आगे बढ़ाकर पूरे अज्ञात ब्रह्माण्ड से जोड़ देता है। स्वाध्याय तपः से एक कदम और आगे ले जाता है। स्वाध्याय मन के दुःख और क्लेशों को भी दूर कर देता है। बुद्ध ने बड़ी सुंदरता से इसकी व्याख्या की है।

कायनु पश्यना – तपसः, शरीर को देखो।

वेदनानु पश्यना – शरीर की संवेदनाओं को देखो।

चित्तानु पश्यना – मन को देखो, मन की छापों को देखो, विचारों को देखो।

धम्मानु पश्यना – अपने सच्चे स्वरुप को देखो। स्वयं को देखो।

जैसे बुद्ध ने चार कदम बताएं हैं ऐसे ही पतंजलि कहते हैं – तपसः, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान। स्वाध्याय तुम्हें सभी दुःख, क्लेश, भय, चिंता और असुरक्षा की भावनाओं से मुक्त कर सकता है। ईश्वर प्रणिधान, ईश्वर के प्रति भक्ति और समर्पण, इस प्रक्रिया को पूर्ण कर देता है। बिना भक्ति के स्वाध्याय भी रुखा सूखा ही है। समर्पण के बिना स्वाध्याय में कोई रस नहीं है। बिना प्रेम और भक्ति के आध्यात्मिक पथ में भी कोई आनंद नहीं है, बिना भक्ति के आध्यात्मिक पथ ऐसे ही है जैसे कोई फीकी खीर या फिर बिना नमक के बेस्वाद रोटी।

ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर के लिए भक्ति कैसे हो सकती है, प्रेम कैसे उमड़ सकता है?

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