प्रकृति ने यह पाँच क्लेश हर शरीर के साथ दिए हैं। अब प्रश्न यह है कि इनकी परत को कितना क्षीण किया जा सकता है और यह कितनी मोटी बनी रह सकती है। यही तुम्हें जीवन में परिष्कृत या अपरिष्कृत बनाता है।

यह क्लेश चार अवस्थाओं में हो सकते हैं:

प्रसुप्तावस्था

प्रसुप्तावस्था में यह दुःख सुषुप्त अथवा निष्क्रिय अवस्था में हो सकते हैं।

तनु:

तनु: अर्थात वह बहुत अल्पशक्ति की अवस्था में रह गई है, इतनी कम कि जैसे वह हो ही नहीं।

प्रच्छन्न

जिसमें एक क्लेश तो बहुत प्रबल होता है और बाकी चार उसके पृष्ठभूमि में चले जाते हैं। जब राग बहुत अधिक होता है तब द्वेष, भय और बाकी सब कहीं उसके पीछे ही छुप जाता है।

उदार

अर्थात जिसमें सभी क्लेश प्रचुरता से हों, प्रबल हों। तुम पूरे समाज और संसार में यही देख सकते हो, ऐसे लोग जो कोई भी अभ्यास नहीं कर रहे होते हैं, उनके जीवन में सभी क्लेश और दुःख भरपूर होते हैं। महृषि पतंजलि की बड़ी सज्जनता है कि वह क्लेशों को भी उदार कह रहे हैं क्योंकि दुखी लोगों के जीवन में क्लेशों की कोई कमी नहीं होती। सभी क्लेशों के प्रबल होने की अवस्था ही उदार है।

साधना इन पाँच क्लेशों को महीन से महीन करती है। हो सकता है कि आध्यात्मिक पथ पर आने से पहले भी आप क्रोधित होते हों और अब उसके बाद भी क्रोध आता हो, परन्तु उस क्रोध की गुणवत्ता बहुत बदल जाती है, वह क्षीण हो कर तनु हो जाती है, मन का पर्दा अधिक पतला और झीना हो जाता है। प्रछन्न, अर्थात जिसमें कोई एक क्लेश प्रबल हो और शेष चार पृष्ठभूमि में चले जाते हो।

जब अविद्या बहुत अधिक हो तो बुद्धि, मन और स्वयं के पृथक होने का भान ही नहीं रहता। मैं और मेरा मन अलग हैं यह जागरूकता ही नहीं रहती, हम इतना बाहर की बदलती हुई परिस्थितियों में उलझ जाते हैं।

जब तुम जागरूक होते हो तब तुम्हें पता होता है कि मन यह कह रहा है, बुद्धि यह है, मैं यह हूँ और बाहर यह हो रहा है, तुम अपने भीतर इन सबके अंतर को देख पाते हो। जो व्यक्ति जागरूक होता है वह ऐसी किसी भी अवस्था में कहेगा कि अरे, मेरे मन को हुआ क्या है? मैं पागल हो गया हूँ क्या? पर कोई व्यक्ति यदि सचमुच पागल हो गया हो तो वह यह सोचेगा भी नहीं कि वह पागल की तरह व्यवहार कर रहा है।  उसके लिए मन, बुद्धि, चित्त, आत्मा सब एक हो गया होता है।

इसी तरह कभी जैसे तुम्हें गुस्सा आता है और तुम उस गुस्से को बाहर दिखा नहीं रहे हो, तब तुम एक बार भीतर देखते भी हो तभी तुम्हें यह एहसास हो जाता है, अरे यह मेरे मन में इतना गुस्सा आ रहा है। इसी तरह यदि तुम्हें कभी बहुत काम वासना उठ जाए और तुम उस क्षण में जागरूक हो जाओ, अरे, मेरे मन में वासना उठ रही है।

परन्तु सामान्यतः लोग जो गुस्से में अपने आपा खो बैठते हैं, उन्हें यह जागरूकता ही नहीं होती की उन्हें गुस्सा आ रहा है, वह गुस्सा ही बन जाते हैं। क्या तुम यह समझ रहे हो?

शरीर को  सँभालने के लिए भी शरीर में थोड़ा भय रखा ही गया है, पर यह खाने में नमक के बराबर, थोड़ा ही होना चाहिए। इससे भी कम, बहुत कम भय शरीर में उनके भी बना रहता है जो शास्त्रों और वेदों के ज्ञानी हैं। इसे भय नहीं, पर सतर्कता कहना अधिक ठीक है। भय का एकदम अलग ही अर्थ है। जागरूकता, सतर्कता और भय के गुणधर्म में एक समानता है। इसलिए महृषि ने इसे भय न कहकर अभिनिवेश कहा है, अभिनिवेश के लिए कोई अन्य शब्द भी नहीं है। अभिनिवेश अपनी प्रगाढ अवस्था में भय और सूक्ष्मतम होकर सतर्कता में प्रतिबिंबित होता है।

तुम किसी नदी पर एकदम किनारे चल रहे हो तब तुम सतर्कता पूर्वक चलते हो कि कहीं तुम फिसल न जाओ। यदि यह सतर्कता भी न रहे तब शरीर संभल ही नहीं पाएगा, तुम पानी में भी जा सकते हो। तुम शरीर नहीं हो पर इस वजह से शरीर का ध्यान नहीं रखने से तो शरीर रहेगा ही नहीं। शरीर को बनाए रखने के लिए कुछ मात्रा में उसका ध्यान रखना आवश्यक है।

जब यही सतर्कता कुछ अधिक हो जाती है तब असुरक्षा में परिणत होती है। थोड़ा और अधिक हो जाने पर यही असुरक्षा डर में और थोड़ा और अधिक होने पर पागलपन बन जाता है।  यह ऐसे ही है जैसे कि खाने में नमक ज्यादा हो जाए तो वह खाने लायक नहीं रहता। 

नमक के जैसे थोड़ी मात्रा में क्लेशों का अर्थ यह नहीं कि तुम उन्हें सही साबित करने लगो। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, दुःख के इन पाँच स्त्रोतों को साधना के माध्यम से क्षीण करते जाओ।

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