महृषि पतंजलि हमारे मन के बड़े अच्छे विशेषज्ञ हैं। महृषि पतंजलि जानते थे कि कोई भी व्यक्ति सभी के लिए एक जैसा भाव नहीं रख सकते और भावनाएँ बदलती रहती हैं और पोषित भी की जा सकती हैं।
इसलिए वे कहते हैं की मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा के अलग अलग भाव रखकर चित्त को सुखद रखा जा सकता है और इस अभ्यास से एक सिद्धांत पर ध्यान रखना सुलभ हो जाता है, एकतत्त्वाभ्यास लगने लगता है।
यदि यह भी मुश्किल लगे, तब पतंजलि कहते हैं कि मैं तुम्हे एक और सूत्र देता हूँ।
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य॥
श्वास की प्राकृतिक लय को तोड़कर, इसे विभिन्न लयों में बांधकर रखने से भी विभिन्न बाधाओं और विक्षेपों के पार जाया जा सकता है। यदि तुमसे कोई पूछे कि महृषि पतंजलि ने सुदर्शन क्रिया की बात कहाँ की है?
महृषि पतंजलि ने सुदर्शन क्रिया की बात सीधे सीधे नहीं की है पर इस सूत्र में उन्होंने एक संकेत छोड़ा है। हम अपनी क्रिया साधना में भी यही अभ्यास करते हैं, सजगतापूर्वक हम एक विशेष तरह से लयबद्ध श्वांस लेते और छोड़ते हैं।
यही प्रच्छर्दन है, आती जाती साँस की लय को तोड़कर एक विशेष लय में श्वसन का अभ्यास करने से प्राण और श्वास को बाँध सकते हैं। इस तरह से भी मन को शांत और एकाग्र बनाया जा सकता है।
विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी॥
मान लो इसके बाद भी मन एकाग्र न हो अथवा तुम्हें अधूरापन लगे, तब किसी एक इंद्री के विषय वस्तु से भी मन ठहर सकता है।
जैसे उपनयन प्रक्रिया में तुम यदि किसी को निहार रहे हो, थोड़े समय में ही तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा मन ठहर गया है और तुम पूरी तरह से वहीं होते हो। फिर जब तुम जैसे ही आँखें बंद करते हो, मन शांत और विश्राममय होता है।
इसी तरह भजन गाने के बाद सत्संग में जब तुम आँखें बंद कर के बैठते हो, तब उस समय भी मन ठहर जाता है। इसी तरह हम अपने शिविरों में एक अंगूर के साथ प्रक्रिया करते हैं जिसमें भी तुम पूरी तरह से स्वाद लेते हुए अंगूर का दाना खाते हो और मन पूर्ण रूप से वहीं होता है।
प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी, इसलिए तुम्हें हर प्रक्रिया में पूरी तरह से भाग लेना चाहिए। किसी प्रक्रिया में तुम्हें लग सकता है कि मैं यह क्यों करूँ, कैसी बच्चों जैसी प्रक्रिया है पर हमें यह पता नहीं होता कि हमारा मन कहाँ अटका हुआ है। मन बच्चे के जैसे ही छोटी छोटी बातों में ही फंसा रहता है।
ऐसी ही प्रक्रियाओं में किसी विषय वस्तु के लिए पूर्ण ध्यान से मन को केंद्रित किया जा सकता है।
आगे पतंजलि कहते है, विशोका वा ज्योतिष्मती॥
दुःख के पार जाओ, यह कैसे संभव है