ज्ञान के लेख (Wisdom)

१ नवंबर बेंगलुरु - परम पूज्य गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के सानिध्य में सत्संग के कुछ अंश | Satsang with Gurudev Sri Sri Ravishankar on 1 Nov,2017 at Bangalore Ashram in Hindi

१ नवंबर बेंगलुरु - आर्ट ऑफ़ लिविंग अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय - परम पूज्य गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के सानिध्य में सत्संग से

सभी राज्यों के लोगों का अभिनन्दन - हर वो कोई जो उत्सव मना रहा है | उत्सव के लिए कोई भी कारण उत्तम है | भारत वर्ष में हर प्रांत की अलग संस्कृति है, एक अलग पहचान है | उनका अपना एक विशिष्ट भोजन, संगीत और लोकगीत हैं | इस विशिष्टता को बनाये रखना, इसे प्रोत्साहित करना अति आवश्यक है |

आज बच्चे अपनी मातृभाषा में गिनती करना भूल चुके हैं | मैं उन्हें प्रोत्साहित करता हूँ कि वे अपनी मातृभाषा सीखें, प्रयोग करें और इस धरोहर को संभाल के रखें |

आप जितनी अधिक भाषाएँ जानेगें, सीखेंगे वह आपके लिए ही उत्तम होगा | आप जिस किसी भी प्रांत, राज्य से हैं कम से कम आपको वहां की बोली तो अवश्य आनी चाहिए | आपको वहां की बोली सीखने का कोई भी मौका नहीं गवाना चाहिए | कम से कम वहां की गिनती, बाल कविताएँ और लोकगीत | पूरी दुनिया को ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार (Twinkle Twinkle Little Star) या बा - बा ब्लैक शीप ( Ba-ba black sheep) गुनगुनाने की कतई आवश्यकता नहीं है |आपकी लोकभाषा में कितने अच्छे और गूढ़ अर्थ के लोकगीत , बाल कविताएँ, दोहे, छंद चौपाइयाँ हैं जिन्हें हम प्रायः भूलते जा रहे हैं |

भारत के हर प्रांत में बेहद सुन्दर दोहावली उपलब्ध है और यही बात विश्व भर के लिए भी सत्य है | उदाहरण के लिए एक जर्मन बच्चा अपनी मातृभाषा जर्मन (German) में ही गणित सीखता है न कि अंग्रेजी में क्योंकि जर्मन उसकी मातृभाषा है | इसी प्रकार एक इटली में रहने वाला बच्चा भी गिनती इटैलियन (Italian) भाषा में और स्पेन का बालक स्पैनिश (spanish) भाषा में सीखता है | किन्तु भारतीय बच्चे अपनी लोकभाषा जिसमें हमें कम से कम गिनती तो आनी चाहिए उसे भूलते जा रहे हैं | इससे हमारे मस्तिष्क पर भी गलत असर पड़ता है और हमारी लोकभाषा में गणित करने की क्षमता कमज़ोर हो जाती है |

जब हम छोटे बच्चे थे तब पहली से चौथी कक्षा का गणित लोकभाषा में पढ़ाया जाता था | अब धीरे धीरे यह प्रथा लुप्त होती जा रही है | लोकभाषा, मातृभाषा में बच्चों का बात ना करना अब एक फैशन हो गया है | इससे गाँव और शहर के बच्चों में दूरियाँ बढ़ती हैं | गाँव, देहात के बच्चे जो सबकुछ अपनी लोकभाषा में सीखते हैं अपने को हीन और शहर के बच्चे जो सबकुछ अंग्रेजी में सीखते हैं स्वयं को श्रेष्ठ, बेहतर समझने लगते हैं | इस दृष्टिकोण में बदलाव आना चाहिए |

हमारे बच्चों को अपनी मातृभाषा और उसी में ही दार्शनिक भावों से ओतप्रोत लोकगीत का आदर करते हुए सीखने चाहिए | नहीं तो हम अवश्य ही कुछ महत्वपूर्ण खो देंगे |

बांग्ला भाषा में बेहद सुन्दर लोकगीत हैं जो वहां के लोकगायक बाउल ( baul - इकतारे के समान दिखने वाला) नामक वाद्ययंत्र पर गाते बजाते हैं | उनके गायन को सुनकर अद्धभुत अनुभव होता है - गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने इन्ही से ही प्रेरणा ली थी | इसी प्रकार आँध्रप्रदेश में ‘ जनपद साहित्य ‘ और वहां के लोकगीत, छत्तीसगढ़ के लोकनृत्य, केरला के सुन्दर संगीत, भोजन, संस्कृति सब कुछ अप्रतिम है |

१९७० में कॉलेज के दौरान मैं केरला गया था | तब वहां पर सिर्फ केरल का ही भोजन ‘लाल रंग के चावल’ खाने को मिलते थे | उन्हें सफ़ेद चावल, पुलाव इत्यादि के बारे में कुछ नहीं पता था | वे लोग वही परम्परागत उबले हुए लाल चावल ही खाते थे जो बहुत सेहतमंद होता है | लेकिन आज अगर आप वहां जाएंगे तो बर्गर, पिज़्ज़ा, सैंडविच इत्यादि सब कुछ पाएंगे |

और इसी प्रकार धीरे धीरे वहां का पंचकर्मा और आयुर्वेद लुप्त होने लगा | लेकिन कुछ प्रबुद्ध, विद्वान् लोगों ने उस प्रथा को जीवित रखा और उसे धीरे धीरे वापिस ले आये हैं |

अतः हर प्रांत की कुछ न कुछ अपनी अनूठी विशेषता होती है - वहां का भोजन, संस्कृति, बोली, संगीत, नृत्य इत्यादि जिसका मान करना चाहिए और उस धरोहर को संभाल के रखना चाहिए | यही तो असली में विविधता है जिसका हमें आदर करना चाहिए और प्रोत्साहित करना चाहिए | तभी तो हम वास्तव में ‘विविधता में एकता की कसौटी पर खरे उतरेंगे जिसका सम्पूर्ण जगत में उदहारण दिया जा सकेगा |

यही बात मैं विश्व के आदिवासी संस्कृति के बारे में भी कहूंगा | कनाडा (Canada) की अपनी एक विशिष्ट आदिवासी प्रजाति है | उनकी अपनी संस्कृति है और इस प्रजाति को वहां की सर्वप्रथम नागरिकता का सम्मान प्राप्त है | इसी प्रकार से अमरीका में भी, Indigenous Americans या American Indians प्रजाति के लोग, जो अब अपनी भाषा तो भूल चुके हैं, किन्तु अब भी उन्होनें अपनी ससंकृति, सभ्यता को जीवित रखा है | इसी प्रकार से दक्षिण अमरीकी महाद्वीप में भी ऐसा ही है |

मेरे विचार से यह एक विश्व की अनुपम धरोहर है | हमें अपनी सभ्यता के, निष्ठा के बारे में सचेत रहना चाहिए और उसे प्रोत्साहित करना चाहिए |

प्रश्न - गुरुदेव कृपया महादेव द्वारा समुद्र मंथन के समय निकलने वाले विष-पान करने के सांकेतिक अर्थ के बारे में समझाएं ?

श्री श्री - जब दैविकऔर दानवी शक्तियां मिल कर मंथन करती हैं तो सबसे पहले नकारात्मकता अर्थात विष बाहर आता है | इस विष को पीने की शक्ति किसी में भी नहीं है | किन्तु उस समय सर्वशक्तिमान, अलौकिक, अति पवित्र सर्व हितैषी ब्रह्माण्डीय चेतना के बल से वह विष उसमे लिप्त हो जाता है और उस विष से भी संसार को वापिस श्रेष्ठ्त्ता ही प्रदान होती है |

प्रश्न - जब मैं नित्य साधना करता हूँ, तो उसके पश्चात् मेरे मन में कुछ प्रार्थना आती है | घर के बड़े ईश्वर पूजा करते हैं | क्या यह दोनों अलग से करनी चाहिए ? इसका क्या महत्व है ? हमें नित्य प्रतिदिन क्या पूजा, प्रार्थना करनी चाहिए जो हमें सही दिशा निर्देश दे सके ? कृपया बताएं - सधन्यवाद !

श्री श्री - देखिए जो लोग नित्य प्रति साधना, ध्यान करते हैं उन्हें पूजा पाठ में अधिक रूचि नहीं रह जाती | जब आप ध्यान में बैठे बैठे सब कुछ अनुभव कर लेते हैं, तो फिर फूल चढ़ाना , अगरबत्ती धुप इत्यादि दिखाने का क्या अभिप्राय | लेकिन तब भी मैं यही कहूंगा, कि ऐसा सब कुछ करने से घर में संस्कारों का वातावरण बना रहता है | प्रतिदिन अपने घर में एक दीपक जलाएँ - लेकिन आजकल तो बिजली की बल्ब जलाए जा सकते हैं, तो इस दीपक जलाने का क्या लाभ | ऐसा नहीं है - दीपक अवश्य जलाएँ क्योंकि यह आपके घर में संस्कारों का वातावरण बनाता है |

इसी प्रकार जब आप घर में कुछ अग्निकार्य करते हैं, तब घर के सब सदस्यों को एक साथ मिलकर आरती करनी चाहिए | इसका महत्व ईश्वर को प्रसन्न करना नहीं अपितु घर के, समाज के सभी लोगों का मन एकजुट करना और अच्छे संस्कारों को स्थापित करना है | ईश्वर प्राप्ति एक निजी लक्ष्य है लेकिन इन सब धार्मिक कृत्यों का प्रयास सबको एक साथ लाना है | दूसरा प्रश्न - हमें क्या प्रार्थना करनी चाहिए ? प्रार्थना तो स्वतः ही हो जाती है | जो चाहिए वही तो प्रार्थना है |

प्रार्थना दो स्थितियों में होती है | जब आपको किसी चीज़ की आवश्यकता होती है या जब आप कृतज्ञ होते हैं | हम याद करते हैं की हमने क्या प्राप्त किया, हमें क्या मिला है और उसके प्रति हम कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और स्वतः ही प्रार्थना हो जाती है | और इसके अलावा आप क्या कहना चाहते हैं या शायद आप यह जानना चाहते हैं कि हमें ईश्वर से क्या माँगना चाहिए तो मैं आपका प्रश्न नहीं समझ पाया | तब यही कहा जा सकता है कि गायत्री मन्त्र का जप करें | हमारा मन मस्तिष्क गायत्री मन्त्र में लिप्त हो जाए | हमारा जीवन जो बुद्धि के बल से चलता है - इस बुद्धि को प्रेरणा दें और हे ईश्वर आप ही इस बुद्धि के प्रेरणा स्रोत हैं | इसे ही “धियो यो न: प्रचोदयात्” ( “Dhiyoyana Prochodaya”) कहा जाता है | आप हमारे मन मस्तिष्क को अच्छे विचारों से भर दें | इससे और कोई श्रेष्ठ प्रार्थना नहीं हो सकती है | गायत्री मन्त्र का यही सार है | हमारी बुद्धि आप में स्थिर रहे और हमसे जो कोई भी पाप कर्म हुए हैं, वे सब धुल जाएँ | हे ईश्वर इस बुद्धि में सुविचार दें और इसे इसके लिए ही प्रोत्साहित करें |

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