योग के बारे में (yoga)

योग का अनुशासन | Discipline of Yoga

पतंजलि योग सूत्र 1: अथ योगानुशासनम् ।। 1.1।।

शासन एक ऐसा नियम है, जो किसी और ने आप पर लगाया हो - राजा ने, समाज ने, परन्तु अनुशासन ऐसा नियम है जो आप अपने ऊपर लागू करते हैं।

अनुशासन की आवश्यकता कब है?

यदि आपको प्यास लगी हो तो आपको पानी पीने के लिए अनुशासन की आवश्यकता नहीं है, आप यह नहीं कहते की प्यास लगने पर पानी पीना अनुशासन है। ऐसे ही आपको जब भूख लगी हो तब आप यह नहीं कहते की मेरा भूख लगने पर भोजन करना का अनुशासन है, ऐसे ही आप यह भी नहीं कहते कि आपका प्रकृति का आनंद लेना अनुशासन है।

जहाँ आनंद का प्रश्न है, वहाँ अनुशासन की आवश्यकता नहीं लगती है। अनुशासन की आवश्यकता तब होती है जब पहला कदम सुखकर न हो परन्तु उसका अंतिम फल सुखकर हो। जैसे एक मधुमेह रोगी के लिए मिठाई नहीं खाने का अनुशासन है, उसे तब मिठाई खाना सुखदायक लग सकता है पर उसके बाद में दुखदायी परिणाम होते हैं ।

जब आपका मन शांत, चित्त प्रसन्न और आप स्वयं में स्थित हो तब अनुशासन की आवश्यकता नहीं है, परन्तु यदि मन में हलचल है, मन उद्वेलित है तब मन को शांत करने के लिए अनुशासन जरूरी हो जाता है।

 

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ऐसा सुख जो किसी अनुशासन के पालन के बाद आता है, वही सात्त्विक सुख है, वही दीर्घकालीन सुख है। ऐसा सुख जो प्रारम्भ में सुखद हो और जिनका अंत दुखदायी हो, वह वास्तव में सुख ही नहीं है। कई बार लोग अपने ऊपर ऐसा अनुशासन लगाते है जो न उन्हें कभी कोई सुख देता है और न किसी और को, यह तामसिक अनुशासन है। अनुशासन का अर्थ स्वयं को अकारण ही प्रताड़ित करना नहीं है, अनुशासन का उद्देश्य है आनंद की प्राप्ति।

सुख के तीन प्रकार

  • सात्विक - जो शुरुआत में रुचिकर न हो, सुविधाजनक न हो पर जिसका अंतिम परिणाम सुखदाई हो।
  • राजसिक - जिसका आरम्भ सुखमय प्रतीत होता है, परन्तु जो अंत में दुःख और कष्ट दे।
  • तामसिक - यह वास्तव में सुख है ही नहीं, पर सुख के होने का आभास देता है। तामसिक सुख शुरू से अंत तक दुःख ही है।

तामसिक सुख के लिए कोई अनुशासन की आवश्यकता नहीं होती है और गलत अनुशासन का होना राजसिक सुख होता है। सात्त्विक सुख के शुरुआत में होने वाली कठिनाई के पार जाने के लिए सही अनुशासन आवश्यक है। जो असुखद है उसे वहन करना ही अनुशासन है, ऐसा भी जरूरी नहीं की हमेशा असुविधा रहे परन्तु असुविधा के होने पर भी उससे होकर गुजरने के लिए अनुशासन की आवश्यकता होती है।

योग को अनुशासन क्यों कहा गया है?

महर्षि पतंजलि कहते है कि अनुशासन की आवश्यकता अभी है, अभी कब? जब सब कुछ ठीक नहीं है, जब चित्त विचलित और परेशानियों में है - अथ: योगानुशासनम्।

जैसे सुबह आप उठते हैं, दन्त मंजन करते हैं, सोने से पहले फिर मंजन करते हैं, यह अनुशासन है। हो सकता है आपके बचपन में माँ ने यह नियम आप पर लगाए हों, पर एक बार आपकी आदत हो जाने पर और आपको यह समझ आने पर की यह सेहत के लिए अच्छा है, ये अब माँ के नियम न रहकर आपके नियम हो जाते हैं।
इसी तरह अपने आप को स्वच्छ रखना, व्यायाम करना, ध्यान करना, दयालु होना, दूसरो का ध्यान रखना - ऐसे सभी नियम जो आपने अपने ऊपर लगाए हैं, वह सभी अनुशासन हैं।

योग के अनुशासन से क्या होता है?

  • अनुशासन आप को जोड़ता है, यह आपके बिखरे हुए अस्तित्त्व को स्वयं में पुनर्स्थापित करता है।
  • पतंजलि कहते हैं- "तदा दृष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम् - यह आपको अपने आप में स्थापित करता है।" योग के अनुशासन का उद्देश्य है विचलित मन को उसकी प्रवृत्तियों से स्वतंत्र कर आनंद की अनुभूति।

 

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