व्याख्यान

भगवद् गीता

अराजकता के बीच प्रज्ञा की एक पुरातन कथा

भगवद् गीता क्या है ?

भगवद् गीता अराजकता के बीच ज्ञान की एक प्राचीन कथा है। यह काम-काज, व घर-परिवार की दिन-प्रतिदिन की दुनिया में हमारे अभ्यास में योगदान करने के लिए व्यवहारिक ज्ञान को प्रस्तुत करती है। यह एक ऐसी श्रृंखला है जो किसी व्यक्ति के तर्क और विवेक को उसकी अवधारणाओं व सीमाओं को पार करने में सहायता करने के लिए प्रेरित करती है। जैसे-जैसे अर्जुन मुक्ति की दिशा में बढ़ते हैं हम खुद को सही पाते हैं।

श्री श्री रविशंकर जी की व्याख्या

‘राज विद्या-राज गुह्य योग' ‘राज ज्ञान और राज रहस्य' है। यह ज्ञान गुप्त है और पवित्र भी। यह ज्ञान आत्मा, मन और चेतना को शुद्ध करता है। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “इसे जानकर तुम्हें मुक्ति मिलेगी; तुम  दुखों व कष्टों से मुक्त होगे; तुम जिस जटिलता से घिरे हो, उससे मुक्त होगे। ” स्वतंत्रता प्रत्येक आत्मा की अंतिम इच्छा है। यह राज ज्ञान अत्यंत शुद्ध और परम है, और इसे जानने के बाद, स्वतंत्रता आपके पास आती है।

श्री श्री के व्याख्यान का अंश

देखें, हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ की कामना नहीं रखते हैं। हम वास्तव में क्या चाहते हैं - किसी से फोन पर बात करना या किसी गलतफहमी को दूर करना। यही वह सब है जिसमें हम लगे हैं। हमारे विचार जिन बातों के चारों ओर मंडराते हैं वे वास्तव में महत्वहीन और तुच्छ हैं लेकिन वे बहुत बड़ी दिखाई देती हैं। इसी को माया या भ्रम कहते हैं।

श्री श्री रवि शंकर
पाठकों की राय

भगवद् गीता की व्याख्या के एक अंश को देखें

 

प्रत्येक अध्याय हमारे जीवन में एक भिन्न अवस्था को प्रकट करता है

“यह मत सोचें कि भगवद् गीता बहुत समय पहले घट गई थी। यह अभी भी हर व्यक्ति के जीवन में हर रोज घट रही है। हमारे जीवन में गीता के ये सभी 18 अध्याय हैं। अपने जीवन में, आप देख सकते हैं कि अब आप किस अध्याय में हैं। आप कहाँ अटक गए । पहले अध्याय में ? दूसरे या तीसरे अध्याय में ?  आप अपने लिए जांच कर सकते हैं कि आपका जीवन कहां है।” “भगवद गीता में सागर की गहराई और आकाश की विशालता है।”
श्री श्री

अध्याय 1:

विषाद योग

अर्जुन का संकट। अर्जुन ने कृष्ण से अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच ले जाने का अनुरोध किया क्योंकि उन्हें युद्ध के परिणामस्वरूप मित्रों और संबंधियों को खोने का डर था।

अध्याय 7:

विज्ञान योग

विवेक । कृष्ण परम सत्य और उसकी आभासी ऊर्जा माया का वर्णन करते हैं।

अध्याय 14:

गुणत्रय विभाग योग

कृष्ण भौतिक प्रकृति के तीन गुणों की व्याख्या करते हैं, जो अच्छाई, राग, और अज्ञान से संबंधित हैं । एक सजीव प्राणी पर उनके कारणों, विशेषताओं और प्रभाव का भी वर्णन किया गया है।

अध्याय 2:

सांख्य योग

कृष्ण से सहायता मांगने के बाद, अर्जुन को विभिन्न विषयों जैसे कि कर्म योग, ज्ञान योग, सांख्य योग, बुद्धि योग और आत्मा की अमर प्रकृति का ज्ञान दिया जाता है।

अध्याय 8:

अक्षर-ब्रह्म योग

मृत्युपूर्व अंतिम विचार का महत्व, भौतिक और आध्यात्मिक दुनिया में  अंतर तथा प्रकाश और अंधकार के पथ, जिन पर एक आत्मा मृत्यु के बाद गमन करती है, इन सभी का वर्णन किया गया है.

अध्याय 15:

पुरुषोत्तम योग

परम् की प्राप्ति । कृष्ण भगवान की पारलौकिक विशेषताओं की पहचान करते हैं जैसे, सर्वशक्तिमत्ता, सर्वज्ञता और सर्वव्यापकता।

अध्याय 3:

कर्म योग

कर्मों का महत्व । कृष्ण बताते हैं कि कैसे कर्म योग, अर्थात परिणाम के प्रति राग के बिना, नियत कर्तव्य का पालन करना, कर्म करने का उपयुक्त ढंग है।

अध्याय 9:

राज-विद्या - राज-गुह्य

कृष्ण बताते हैं कि कैसे उनकी शाश्वत ऊर्जा पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त होकर उसका सृजन, संरक्षण और विनाश करती है।

अध्याय 16:

दैवासुर-सम्पद - विभाग योग

दैवीय और आसुरी में  भेद.  कृष्ण मानव की दैवीय और आसुरी प्रकृति की पहचान कराते हैं।

अध्याय 4:

ज्ञान योग

ज्ञान का मार्ग। कृष्ण प्रकट करते हैं कि उन्होंने अनेक जन्म लिए हैं, सदा ही  पवित्र जनों  की रक्षा तथा असुरों के विनाश के लिए उन्होंने योग का ज्ञान दिया है, वे गुरु को अंगीकार करने के महत्व पर बल देते हैं।

अध्याय 10:

विभूति-विस्तार-योग

अर्जुन ने उन महान ऋषियों को उद्धृत करते हुए कृष्ण को परम पुरुष के रूप में स्वीकार किया, जिन्होंने स्वयं भी ऐसा किया है।

अध्याय 17:

श्रद्धात्रय-विभाग योग

कृष्ण श्रद्धा, विचार, कर्म, और यहां तक ​​कि भोजन की आदत को, तीन गुणों के अनुसार तीन विभागों में विभाजित करते हैं|

अध्याय 5:

कर्म वैराग्य योग

कर्म फल का त्याग । अर्जुन कृष्ण से पूछते हैं  कि क्या कर्म न करना, कर्म करने से बेहतर है।

अध्याय 11:

विश्वरूप-दर्शन योग

अर्जुन के अनुरोध पर, कृष्ण अपना सार्वभौमिक "विश्वरूप" प्रदर्शित करते हैं।

अध्याय 18:

मोक्ष-सन्यास योग

उद्धार और त्याग। पिछले सत्रह अध्यायों के निष्कर्ष को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। कृष्ण अर्जुन को धर्म के सभी रूपों को त्याग कर केवल उनके प्रति आत्मसमर्पण के लिए कहते हैं और इसे जीवन की अंतिम पूर्णता बताते हैं|

अध्याय 6:

अभ्यास योग

कृष्ण मन की समस्याओं और उन विधियों का वर्णन करते हैं जिनके द्वारा मन पर विजय प्राप्त की जा सकती है।

अध्याय 13:

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

पदार्थ और आत्मा का पृथक्करण। क्षणिक नाशवान भौतिक शरीर और अपरिवर्तनीय शाश्वत आत्मा के बीच का अंतर वर्णित है।