उपनिषद क्या होता है | Upanishad in Hindi
उपनिषद का अर्थ है निकट बैठना। शारीरिक तौर पर तुम किसी के निकट बैठ सकते हो परंतु मन में बड़ी भारी दूरी कायम रह सकती है। आध्यात्म इतना विशाल है कि आध्यात्मिक जगत में पकड़ बनाने के लिए तुम्हें मानसिक निकटता की आवश्यकता है। हज़ारों वर्ष पूर्व उपनिषद के रूप में इस ज्ञान का आविर्भाव हुआ।
ईश उपनिषद | Isha upanishad in Hindi
ईश उपनिषद में 18 पद हैं। ईश ''ई'' ऊर्जा को दर्शाता है और "श" पूर्णता को; संपूर्ण, मौन, वृहत, दिव्य। आवाहन का आरंभ होता है परिपूर्णता के विस्मयोद्गगार से, "ॐ पूर्णमदः" अर्थात "वह जो परिपूर्ण है"। वह कौन सी परिपूर्णता है जिसका आवाहन किया जा रहा है। यह ध्यान की वह अवस्था है जो न तो स्वपनावस्था है न निद्रावस्था और न ही जागृत अवस्था। ध्यान के अनुभव के बाद गुरू शिष्य से कहते हैं "यह पूर्णता है"। "ॐ शांति, शांति, शांति" से आवाहन का समापन होता है। कोई भी आनंद अथवा ज्ञान शांति के अभाव में संभव नहीं। शांति की ओर पहला कदम यह समझ लेने में है कि सब कुछ पूर्ण है।
संसार, जो हम देखते हैं, इन्द्रियों का वह जगत समिष्टि का केवल एक छोटा सा अंशमात्र है। पूर्णता एक शून्य की तरह है, विपुल और सम्पूर्ण। शून्य के ज्ञान के बिना सभ्यता फलफूल नहीं सकती। संसार एक परिपूर्णता से दूसरी परिपूर्णता की ओर अग्रसर है। पूर्णता मन में ठहराव लाती है ताकि तुम चिन्तन कर सको और मन की यही अन्तर्यात्रा ही आध्यात्म है। ईश या दैवी सत्ता संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है जिसे ऊर्जा के रूप में संबोधित किया गया है व्यक्ति के रूप में नहीं। उसी एक चेतना में सब कुछ व्याप्त है; जागो और देखो कि संपूर्ण सृष्टि अनंत है तथा तुम्हारा अंतर इस सृष्टि की भाँति परिपूर्ण है।
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देखो कि यह सृष्टि तुम्हारी आत्मा में व्याप्त है; कुछ भी निर्जीव नहीं है। अपने शरीर को सम्मान दो और त्याग करते हुए इस जगत का रसास्वादन करो। संसार को पकड़ कर रखने की ज्वरग्रस्तता दुख लेकर आती है तथा त्याग तुम्हारी आत्मा का संरक्षण करता है। यद्यपि सुखद और दुखद घटनाएं अलग अलग प्रतीत हो सकती हैं परंतु वे एक ही दिव्य सत्ता से गठित हैं। दुखद घटनाएं तुम्हें मजबूत बनाती हैं जबकि सुखद घटनाएं तुम्हें विकसित करती हैं। त्याग का अर्थ है पूरी तरह से वर्तमान क्षण में मौजूद होना। यह समझो कि यह सृष्टि प्रेम और प्रचुरता से परिव्याप्त है तथा तुम्हारी सभी आवश्यकताओं की देखरेख की जाएगी।
दुख में त्याग करने का बल तथा आनंद में सेवा करने की तत्परता ऐसी दो चीज़ें हैं जिसे जीवन में हमें सीखना है; अपना कर्म करते हुए 100 वर्ष जीने की अभिलाषा रखो। जीवन यहाँ अपने कर्मों से मुक्त होने के लिए है, जोकि तुम इस शरीर में रहकर ही कर सकते हो; तथा वह ज्ञान जो तुम्हें मिल रहा है दूसरों में बाँटो। अपना कर्म शत-प्रतिशत करो परंतु उसके बारे में ज्वरग्रस्त मत हो जाओ। जो कुछ भी तुमने नहीं किया या जिस किसी के लिए भी तुमने प्रेम को अनुभव नहीं किया, वह करने के लिए तुम वापिस आओगे। अपना कर्म करते रहो और उसका त्याग करते रहो।
हमारी समझने की सीमित क्षमता के कारण इस संपूर्ण सृष्टि को एवं उसकी महामनस्कता को वस्तुतः हम जान नहीं सकते। मस्तिष्क एक फ्रीकवेन्सी चैनल पर कार्य करता है; हमारी इन्द्रियों के पास सीमित क्षमता है किन्तु दैवी सत्ता की ही तरह सृष्टि असीम है। इस सीमित समय में जिसे हम जीवन कहते हैं, हम अपना कर्म करते रहते हैं।
कर्म दो तरह के होते हैं : एक वह जो आत्मा का उत्थान करे और दूसरा है हमारे कर्तव्यों का पालन। जिसने जीवन में स्वयं को नहीं समझा या खुद पर ध्यान नहीं दिया वह अंधकार में घिरा हुआ है। ऐसे लोग बिना केन्द्रित हुए जीते हैं; वह संसार के अंधकार में जीते हैं और संसार छोड़ते हुए वह अंधेरे में ही होंगे। जब तुम ध्यान में यह शरीर छोड़ते हो तब तुम एक उच्चतर स्तर को प्राप्त करते हो।
चौथे एवं पाँचवें पद में आत्मबोध की धारणा को प्रस्तुत किया गया है। तुम कैसे जानोगे कि तुम्हें आत्मानुभूति हुई है? आत्मा अचल है; यह सृष्टि का आधार है एवं सब कुछ इसमें निहित है। वह शून्य है; प्रकाश की गति से अधिक तीव्रतर है, मन से अधिक गतिशील है, इन्द्रियों के द्वारा तुम आत्मा को कभी भी नहीं समझ सकोगे।
दृष्टा यानी वह जो देखता है, अनुभव करता है, समझता है वह आत्मा है। इन्द्रियों के माध्यम से इसका बोध संभव नहीं तथापि सृष्टि में प्रत्येक कर्म चेतना के माध्यम से होता है। एक बीज का अंकुरण होता है क्योंकि उस बीज में चेतना है। संपूर्ण सृष्टि इस प्राण अथवा जीवनी शक्ति से परिपूर्ण है एवं तुम तत्व नहीं बल्कि उस तत्व के धारक हो।
सौजन्य: दि आर्ट ऑफ़ लिविंग ब्यूरो ऑफ़ कम्युनिकेशन्स
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